फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी रंगभरी एकादशी (Rangbhari Ekadashi In Hindi) के रूप में मनाई जाती हैं। इसका मुख्य आयोजन भगवान शिव की नगरी काशी (Rang Bhari Ekadashi Varanasi) में होता हैं क्योंकि इसी दिन भगवान शिव माता पार्वती से विवाह करने के पश्चात पहली बार उन्हें उनके ससुराल काशी नगरी (वाराणसी) लेकर आये थे।
इस दिन भगवान शिव के काशी विश्वनाथ मंदिर में बढ़ी धूम रहती हैं और उनका विशेष श्रृंगार किया जाता हैं। साथ ही इसका संबंध भगवान विष्णु से भी हैं तभी इसे आमलकी एकादशी (Amalaki Ekadashi In Hindi) के रूप में जाना जाता हैं। आज हम आपको रंगभरनी एकादशी के बारे में संपूर्ण जानकारी देंगे।
माता सती के आत्म-दाह के बाद भगवान शिव चीर साधना में चले गए थे। इसके बाद जब माता सती का ही पार्वती के रूप में पुनर्जन्म हुआ तब भगवान शिव ने अपनी साधना छोड़कर उनसे विवाह किया। विवाह के कई दिनों के बाद वे माता पार्वती को पहली बार उनके ससुराल और अपनी नगरी काशी में लेकर आये थे।
उस दिन रंगभरनी एकादशी का ही दिन था। तब से माता पार्वती के पहली बार अपने ससुराल आने की खुशी में रंगभरनी एकादशी का पर्व काशी नगरी में बड़ी ही धूमधाम के साथ आयोजित किया जाता है।
इस दिन भगवान शिव के काशी विश्वनाथ मंदिर का विशेष श्रृंगार किया जाता हैं और विभिन्न चीज़ों से उनका अभिषेक किया जाता हैं। इसमें भगवान शिव बारात लेकर माता पार्वती को लेने निकलते हैं और माता पार्वती का गौना किया जाता हैं।
इसके बाद शिवजी अपने परिवार सहित पालकी में बैठते हैं और काशी की नगरी से निकलते हैं। यह प्रतिमाएं रजत (चांदी) की बनी होती हैं जिन्हें बम भोले के भक्त उठाये रहते हैं। शहर भर का चक्कर लगाकर यह पालकी पुनः काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँच जाती है।
इस दिन भगवान शिव पालकी में माता पार्वती के साथ बैठे हुए काशी की जिन-जिन गलियों से निकलते हैं वहां उत्सव का वातावरण होता हैं। चारों ओर से भक्तों और स्थानीय लोगों में उन पर रंग उड़ाने की होड़ लगी रहती हैं। सभी भक्तगण होली के विभिन्न रंगों में रंग जाते हैं।
आज के दिन से ही काशी नगरी में होली खेलने की आधिकारिक शुरुआत हो जाती हैं जो धुलंडी तक चलती हैं। कुंवारी महिलाएं भगवान शिव जैसा सौभाग्य प्राप्त करने का आशीर्वाद मांगती हैं और उन्हें रंग लगाने का प्रयास करती हैं। इस दिन पूरी काशी नगरी में रंग ही रंग उड़ते हुए दिखाई देते हैं।
दरअसल आमलकी एकादशी कहने से तात्पर्य आंवले के वृक्ष से हैं जिसका संबंध भगवान विष्णु से है। इसी दिन भगवान विष्णु ने आंवलें के वृक्ष को उत्पन्न किया था और उसे मनुष्यों के लिए हितकारी बताया था। उन्होंने देवताओं को इसकी पूजा करने और इसका सदुपयोग करने को कहा था।
मान्यता हैं कि इसके बाद ही उनकी नाभि से भगवान ब्रह्मा का उदय हुआ था जिसके बाद सृष्टि का निर्माण हुआ था। इसलिये आंवले के वृक्ष का अत्यधिक महत्व हैं जो हमारे लिए कई प्रकार से गुणकारी हैं। इसलिये रंगभरनी एकादशी के दिन आंवलें के वृक्ष की पूजा करने का विधान है।
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