श्रीराम के राज्याभिषेक के कुछ दिनों के बाद ही नीति की चाल कुछ ऐसी चली कि श्रीराम व माता सीता एक-दूसरे से हमेशा के लिए अलग हो गए। इसके बाद श्रीराम अयोध्या का राज सिंहासन सँभालने लगे तो माता सीता वाल्मीकि आश्रम में रहने लगी। दोनों को बिछड़े हुए कई वर्ष बीत गए तथा इस दौरान राज्य में कोई बड़े उत्सव या यज्ञ का आयोजन नहीं किया गया।
तब एक दिन अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करने का निर्णय हुआ जिसमें राजा के साथ उनकी पत्नी का बैठना अनिवार्य होता था। ऐसे समय में श्रीराम के सामने धर्मसंकट आ पड़ा था क्योंकि दूसरा विवाह वे कर नहीं सकते थे तथा माता सीता को वापस लाना आसान नहीं था। तब माता सीता की सोने की मूर्ति (Mata Sita Ki Murti) बनवाई गई थी। आइए जाने उस समय क्या कुछ हुआ था।
भगवान श्रीराम के जन्मदिन के अवसर पर उनके छोटे भाई लक्ष्मण ने अश्वमेघ यज्ञ करने की सलाह दी। लक्ष्मण का यह प्रस्ताव सुनकर सभी प्रसन्न हुए। भगवान श्रीराम को भी यह विचार उचित लगा तथा उन्होंने महर्षि वशिष्ठ के आदेश से अश्वमेघ यज्ञ को आयोजित करने की अनुमति प्रदान कर दी। इसके पश्चात अश्वमेघ यज्ञ को लेकर राज्य में तैयारियां शुरू कर दी गई।
हिंदू धर्म में यह परंपरा है कि किसी भी यज्ञ में राजा की पत्नी का बैठना अनिवार्य माना जाता है अन्यथा वह यज्ञ अधुरा माना जाता है। चूँकि श्रीराम की केवल एक पत्नी थी जिनको वनवास मिला हुआ था इसलिए सभी के मन में यह आशंका घर कर गई कि श्रीराम यज्ञ के आयोजन के लिए दूसरा विवाह करने जा रहे हैं।
इसे लेकर अयोध्या की प्रजा में खुशी की लहर फैल गई तथा अपने राजा के द्वारा दूसरा विवाह करने तथा अपना अगला उत्तराधिकारी मिलने की खुशी में हर ओर बातें होने लगी। कोई किसी राजकुमारी के साथ श्रीराम के विवाह का सोच रहा था तो कोई अन्य राज्य की राजकुमारी के साथ।
जब भगवान श्रीराम को इस बात का पता चला तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए तथा ऋषि-मुनियों व मंत्रियों को बुलाकर अपनी आपत्ति व्यक्त की। उन्होंने सभी को बताया कि चूँकि उनके लिए सीता निर्दोष थी तथा उसका त्याग उन्होंने केवल प्रजा के लिए किया है इसलिए वे दूसरा विवाह करके सीता का अपमान कदापि नहीं कर सकते।
इसी के साथ उन्होंने कहा कि विवाह के पश्चात उन्होंने सीता को वचन दिया था कि वे जीवनभर दूसरा विवाह नहीं करेंगे तथा सीता को अपनी एकमात्र पत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे। इसलिए दूसरा विवाह करने से उनका वचन भंग होता। उन्होंने सभी को शास्त्रों में इसका उपाय निकालने को कहा।
अयोध्या के राजगुरु महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम के मन की व्यथा को समझा तथा शास्त्रों में इसका उपाय ढूंढ कर बताया। उन्होंने कहा कि यदि किसी कारणवश राजा की पत्नी साथ में ना हो तथा यज्ञ का आयोजन करना हो तब वह अपनी पत्नी की स्वर्ण मूर्ति बनाकर यज्ञ आयोजित कर सकते हैं।इससे यज्ञ पूर्ण माना जाता है।
श्रीराम ने विश्वकर्मा जी को बुलावा भेजा तथा उन्हें माता सीता की स्वर्ण मूर्ति बनाने का आदेश दिया। विश्वकर्मा जी ने कुछ ही दिनों में माता सीता को एकदम मूर्ति में उत्कीर्ण कर दिया जो देखने में एक दम सीता ही प्रतीत होती थी। भगवान श्रीराम भी माता सीता की सोने की मूर्ति देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। इसके पश्चात उन्होंने सीता की मूर्ति के साथ ही अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया तथा पूरे विधि-विधान से सब कार्य संपन्न किए।
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