मित्रता/ दोस्ती/ Friendship….
क्या अर्थ है आपके लिए इसका? आजकल के समय में आप लोग यह समझते हैं कि किसी से सोशल मीडिया पर कुछ बात कर लेने से वह आपके मित्र (Mitrata Par Nibandh) हो गए, फिर अगले महीने नए मित्र और पिछले महीने वाले मित्र को भूल गए, आजकल लोग छोटी-छोटी सी बात पर जैसे कि किसी पोस्ट से गुस्सा हो जाना, किसी बात से नाराज़ हो जाना, किसी विचार में भिन्नता इत्यादि किसी कारण से मित्रता तोड़ देते हैं और नए मित्र की खोज में लग जाते हैं। शायद आप उस रिश्ते को मित्रता नाम देते होंगे लेकिन हमारी नज़र में वह केवल जान-पहचान होती है जो कभी भी किसी भी बात पर यूँ टूट जाए।
मित्रता (Sacchi Mitrata Par Nibandh) वह होती है जिसमे आपके राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक इत्यादि विचारों में भिन्नता, पैसो-कद की ऊँच-नीच, रंग-रूप, इत्यादि कुछ भी मायने नही रखता, मित्रता में केवल और केवल आपसी समझ (Chemistry) व एक दूसरे के प्रति दिल का साफ होना मायने रखता है। वह इतनी कमजोर नही होती कि किसी बात पर, विचारो में किसी प्रकार की भिन्नता इत्यादि पर यूँ टूट जाए। और यदि वह ऐसे टूट जाती है तो समझ जाइएगा कि वह मित्रता नही केवल जान-पहचान थी, जिसे आप मित्रता की संज्ञा दे रहे थे।
जो लोग अपने दोस्तों से दो दिन सोशल मीडिया (Essay On Friendship In Hindi 150 Words) पर चैट ना होने पर बोलते हैं कि तुम तो हमे भूल ही गए, ये वही हैं जिनसे अगर एक महिना चैट ना की जाए तो वे शायद एक दूसरे के लिए फिर से अजनबी हो जाएं। जबकि मित्रता वह होती है जब आप एक-दूसरे से छह माह बिना बात किये भी फिर से मिले तो जैसे छह माह पहले मिले थे वैसे ही मिले।
जब भी सच्ची और निश्चल मित्रता का नाम आता है तब हमारे सामने हमेशा कान्हा-सुदामा की मित्रता याद आती है लेकिन ऐसा क्यों? दरअसल भगवान विष्णु ने श्रीराम व श्रीकृष्ण के रूप में इसलिये ही जन्म लिया था कि वे हमे मानवीय मूल्यों और रिश्तो के बारे में और अच्छे से समझा सकें।
भगवान विष्णु के कई और अवतार (Sacchi Mitrata Story In Hindi) भी हुए लेकिन वह अल्पकाल के लिए थे लेकिन श्रीराम व श्रीकृष्ण के रूप में उन्होंने जन्म से लेकर देहत्याग तक संपूर्ण मानव जीवन व्यतीत किया। इसी जीवनकाल में उन्होंने कई सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किये थे जिसमे से एक श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता थी।
दरअसल कान्हा व सुदामा गुरुकुल के मित्र (An Essay On True Friend In Hindi) थे। गुरुकुल में चाहे कोई राजा का बेटा हो या रंक का, सभी को समान रूप से रहना होता है व जीवन व्यतीत करना होता है। जब दोनों की शिक्षा समाप्त हो गयी तो श्रीकृष्ण राजा बन गए जबकि सुदामा की आर्थिक स्थिति और खराब हो गयी।
सुदामा की एक पत्नी और चार बच्चे थे लेकिन कई दिनों तक उनके पास खाने तक को भी कुछ नही था। ऐसी स्थिति में सुदामा एक दिन अपने मित्र कान्हा से मिलने द्वारका (Paragraph On True Friendship In Hindi) पहुँच जाते हैं। उस समय श्रीकृष्ण ने जातिगत भेदभाव, ऊँच-नीच का भेदभाव, धनी-निर्धनता का भेदभाव, लोक-लज्जा का डर इत्यादि सबकुछ भुलाकर द्वारका की प्रजा के सामने सुदामा को रोते हुए गले लगा लिया था। बस इसी का नाम मित्रता है कि दोनों में इतना अंतर होने के बाद भी और इतने वर्षो के पश्चात मिलने के बाद भी मित्रता में कोई भेदभाव नही आया।
अंत में अपनी बात समाप्त करते हुए कहूँगा कि…
जिस मित्रता के लिए आपको कुछ दिखावा करना पड़े, उन्हें impress करने की कोशिश करनी पड़े, वह नाराज़ ना हो जाए यह सब ध्यान देना पड़े, वह मित्रता नही होती बल्कि मित्रता (Mitrata Ka Mahatva Hindi Mein) वह होती है जिसके सामने आप जो हो वही रहें और वह आपके सामने जो है वैसा ही रहे।
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