आज हम आपको 16 संस्कार के नाम (16 Sanskar In Hindi) और उनके बारे में विस्तार से बताएँगे। सनातन धर्म में मनुष्य जीवन के 16 संस्कार माने गए हैं। यह संस्कार एक व्यक्ति के अपनी माँ के गर्भ से शुरू होकर उसकी मृत्यु तक होते हैं। इन्हीं संस्कारों के माध्यम से उसे अपने जीवन में आगे बढ़ना होता है तथा समाज में स्वयं को ढालना होता है। सोलह संस्कारों का एक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है।
हमारे ऋषि मुनियों ने सदियों पूर्व मनुष्य के जीवन का गहन अध्ययन कर इन 16 संस्कारों का क्रम बताया और उनकी व्याख्या की। इसके बाद से ही हर सनातनी के लिए इनका पालन करना सुनिश्चित किया गया। इसलिए आज हम आपको हिंदू धर्म के सोलह संस्कार के नाम (Solah Sanskar) और उनके बारे में संक्षिप्त परिचय देंगे। आइए जानते हैं।
16 Sanskar In Hindi | 16 संस्कार के नाम
क्या आप जानते हैं कि हमारा जन्म होने से पहली ही 3 संस्कारों को कर लिया जाता है जिसका दायित्व हमारे माता-पिता पर होता है। इसी के साथ ही एक संस्कार हमारी मृत्यु के पश्चात किया जाता है जिसका दायित्व हमारे पुत्रों या रिश्तेदारों पर होता है। केवल 12 संस्कारों को ही हम अपने लिए कर पाते हैं। ऐसे में पहले आप इन 16 संस्कारों का क्रम (16 Sanskar) जान लीजिए।
- गर्भाधान संस्कार
- पुंसवन संस्कार
- सीमंतोन्नयन संस्कार
- जातकर्म संस्कार
- नामकरण संस्कार
- निष्क्रमण संस्कार
- अन्नप्राशन संस्कार
- मुंडन / चूड़ाकर्म संस्कार
- कर्णभेद संस्कार
- विद्यारंभ संस्कार
- उपनयन/ यज्ञोपवित संस्कार
- वेदारंभ संस्कार
- केशांत संस्कार
- समावर्तन संस्कार
- विवाह संस्कार
- अंत्येष्टि संस्कार
इस तरह से आपने सोलह संस्कार के नाम (Solah Sanskar) जान लिए हैं। इसमें से हरेक संस्कार का अपना महत्व व उपयोगिता होती है। पहले के समय में मनुष्य के द्वारा सभी सोलह संस्कारों का पालन किया जाता था लेकिन समय-समय के साथ-साथ और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण इन संस्कारों का महत्व कम होता जा रहा है। ऐसे में आज हम 16 संस्कार का वर्णन करने जा रहे हैं ताकि आपको इनके बारे में विस्तार से जानकारी मिल सके।
#1. गर्भाधान संस्कार
इस संस्कार के माध्यम से एक व्यक्ति के जीवन की नींव रखी जाती है। एक पति-पत्नी के बीच उचित समय पर तथा उचित तरीके से किया गया यौन संबंध तथा एक नए जीव की उत्पत्ति का बीज महिला के गर्भ में बोना ही इस संस्कार का मूल है। सामान्यतया इसके बारे में बात करना उचित नहीं समझा जाता है लेकिन शास्त्रों में इस प्रक्रिया की महत्ता को देखकर इसके बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है।
इस संस्कार के माध्यम से ही भविष्य के मनुष्य की नींव पड़ती है। इसलिए इस संस्कार के नियमों के द्वारा एक स्त्री का गर्भ धारण करना गर्भाधान संस्कार के अंतर्गत आता है।
#2. पुंसवन संस्कार
यह संस्कार गर्भाधान के तीन माह के पश्चात किया जाता है क्योंकि इस समय तक एक महिला के गर्भाधान करने की पुष्टि हो चुकी होती है। इसके पश्चात उस महिला को अपने आचार-व्यवहार, खानपान, रहन-सहन इत्यादि में परिवर्तन लाना होता है तथा कई चीज़ों का त्याग भी करना पड़ता है।
इस संस्कार के माध्यम से वह गर्भ में अपने शिशु की रक्षा करती है तथा उसे शक्तिशाली तथा समृद्ध बनाने में अपना योगदान देती है। 16 संस्कार (16 Sanskar In Hindi) में यह संस्कार बहुत महत्वपूर्ण होता है। यदि इसका सही से पालन किया जाए तो शिशु का ना केवल अच्छे से विकास होता है बल्कि यह आजीवन उसके काम आता है।
#3. सीमंतोन्नयन संस्कार
यह संस्कार गर्भाधान के सातवें से नौवें महीने में किया जाता है। गर्भावस्था की तीसरी तिमाही तक एक शिशु का अपनी माँ के गर्भ में इतना विकास हो चुका होता है कि वह सुख-दुःख की अनुभूति कर सकता है, बाहरी आवाज़ों को समझ सकता है तथा उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है। इस अवस्था तक उसमें बुद्धि का भी विकास हो चुका होता है।
इसलिए इस संस्कार के द्वारा उस महिला को धार्मिक ग्रंथों, कथाओं, सुविचारों का अध्ययन करने को कहा जाता है जिसे उसे इस समय ग्रहण करना चाहिए। इसके द्वारा वह गर्भ में ही अपने शिशु को अच्छे संस्कार दे सकती है। इसका एक उदाहरण अभिमन्यु के द्वारा अपनी माँ सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह को भेदने का ज्ञान लेने का मिलता है।
#4. जातकर्म संस्कार
यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के तुरंत बाद किया जाता है। चूँकि एक शिशु नौ माह तक अपनी माँ के गर्भ में रहता है तथा जन्म लेने के पश्चात उसकी गर्भ नलिका काटकर माँ से अलग कर दिया जाता है। अब उसे स्वतंत्र रूप से वायु में साँस लेना होता है तथा दूध पीना होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसके मुँह में ऊँगली डालकर बलगम को निकाला जाता है ताकि वह अच्छे से साँस ले सके।
इसी के साथ उसे हाथ की तीसरी ऊँगली या सोने की चम्मच से शहद घी चटाया जाता है जिससे उसके वात, पित्त के दोष दूर होते हैं। माँ के द्वारा अपने शिशु को प्रथम बार दूध पिलाना भी इसमें सम्मिलित है।
#5. नामकरण संस्कार
सोलह (16 Sanskar) में से यह संस्कार सामान्यतया शिशु के जन्म के दस दिन के पश्चात किया जाता है जिसमें घर में हवन यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से उसके जन्म लेने के समय, तिथि इत्यादि को ध्यान में रखकर उसकी कुंडली का निर्माण किया जाता है तथा उसी के अनुसार उसका नामकरण किया जाता है।
यह नाम उसके गुणों के आधार पर दिया जाता है जो जीवनभर उसकी पहचान बना रहता है। एक मनुष्य के अंदर भेद स्थापित करने तथा उसकी पहचान बनाने के लिए नामकरण की अत्यधिक आवश्यकता थी। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसका उचित नाम रखा जाता है।
#6. निष्क्रमण संस्कार
शिशु को उसके जन्म से लेकर चार मास तक घर में रखा जाता है तथा कहीं बाहर नहीं निकाला जाता है। इस समय तक वह अत्यधिक नाजुक होता है तथा बाहरी वायु, कणों और वातावरण के संपर्क में आकर उसको संक्रमण होने की आशंका बनी रहती है।
इसलिए जब वह चार मास का हो जाता है तब निष्क्रमण संस्कार के माध्यम से प्रथम बार उसे घर से बाहर निकाला जाता है तथा सूर्य, जल व वायु देव के संपर्क में लाकर उनसे अपने शिशु के कल्याण की प्रार्थना की जाती है। इस संस्कार के पश्चात एक शिशु बाहरी दुनिया के संपर्क में रहने लायक बन जाता है।
#7. अन्नप्राशन संस्कार
जन्म से लेकर छह माह तक एक शिशु पूर्ण रूप से अपनी माँ के दूध पर ही निर्भर होता है तथा इसके अलावा उसे कुछ भी खाने पीने को नहीं दिया जाता है। छह माह का होने के पश्चात उसे धीरे-धीरे माँ के दूध के अलावा अन्य भोजन तरल या अर्धठोस रूप में देने शुरू कर दिए जाते हैं जैसे कि दाल या चावल का पानी, दलिया इत्यादि।
शिशु को माँ के दूध के अलावा प्रथम बार भोजन देने की प्रक्रिया को ही अन्नप्राशन संस्कार कहा गया है। यह संस्कार इसलिए भी आवश्यक होता है क्योंकि माँ के स्तनों में भी दूध कम होने लगता है। इसलिए धीरे-धीरे उसे माँ के स्तन से दूर किया जाता है जिससे कि वह भोजन करने की आदत डाल सके। इसलिए यह संस्कार शिशु व माँ दोनों के स्वास्थ्य के लिए उचित रहता है।
#8. मुंडन / चूड़ाकर्म संस्कार
सोलह संस्कार (Solah Sanskar) में से यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले या तीसरे वर्ष में किया जाता है। इसमें उसके अपनी माँ के गर्भ से मिले सिर के बालों को हटा दिया जाता है। शिशु को जन्म के समय माँ के गर्भ से कई प्रकार की अशुद्धियाँ मिलती है तथा इस संस्कार के द्वारा उन अशुद्धियों को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाता है।
जो केश शिशु को जन्म से मिले होते हैं उनमें कई तरह के जीवाणु तथा विषाणु व्याप्त होते हैं किंतु एक वर्ष से पहले उसका मुंडन नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी खोपड़ी अत्यधिक नाजुक होती है। इसलिए उसके जन्म के एक वर्ष के पश्चात इस संस्कार को करना उचित माना गया है।
#9. कर्णभेद संस्कार
यह संस्कार प्राचीन समय में बालक व बालिका में समान रूप से किया जाता था किंतु वर्तमान में अधिकतर बालिकाओं में ही यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार उस बालक की विद्या को आरंभ करने से पहले किया जाता है। इस संस्कार को उसके जन्म के तीसरे वर्ष में करना होता है जिसमें उसके कान के उचित स्थान पर भेदन करके कुंडल/ बालि इत्यादि पहनाई जाती है।
इस संस्कार को करने से उसके मस्तिष्क की ओर जाने वाली नसों पर दबाव पड़ता है जिससे उसके रक्त संचार, सीखने की शक्ति, याददाश्त, मानसिक शक्ति इत्यादि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
#10. विद्यारंभ संस्कार
यह संस्कार एक बालक के जन्म के पांचवें से आठवें वर्ष में शुरू किया जाता है। एक समाज में विद्या को ग्रहण करना अति-आवश्यक होता है तभी एक सुशिक्षित तथा संस्कारी समाज का निर्माण संभव है अन्यथा चारों ओर अराजकता व्याप्त होने का डर रहता है। किसी भी शिक्षा को ग्रहण करने के लिए पहले एक बालक को अक्षर तथा भाषा का ज्ञान करवाना अति-आवश्यक होता है। इसलिए इस संस्कार के माध्यम से उसे भाषा, अक्षर, लेखन तथा शुरूआती ज्ञान दिया जाता है।
#11. उपनयन/ यज्ञोपवित संस्कार
यह संस्कार एक बालक के आठवें से बारहवें वर्ष के अन्तराल में किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से एक गुरु उस बालक की परीक्षा लेते हैं तथा उसे जनेऊ धारण करवा कर कठिन प्रतिज्ञा दिलवाई जाती है। इस संस्कार को करने के पश्चात उस बालक पर पच्चीस वर्ष की आयु तक उसके माता-पिता का अधिकार समाप्त हो जाता है तथा उसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में रहना होता है। एक तरह से गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए यह संस्कार किया जाता है जिसमें एक गुरु उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
#12. वेदारंभ संस्कार
यज्ञोपवित संस्कार के तुरंत बाद वेदारंभ संस्कार शुरू हो जाता है जिसमें वह बालक अपने गुरु के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करते हुए वेदों का अध्ययन करता है। इसमें उसे भूगोल, ज्योतिष, चिकित्सा, धर्म, संस्कृति, नियम, राजनीति इत्यादि की शिक्षा दी जाती है।
इसी के साथ उसे आश्रम की सफाई, भिक्षा मांगना, गुरु की सेवा करना, भूमि पर सोना इत्यादि कठिन नियमों का पालन करना होता है। आज के समय में गुरुकुल की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है और ना ही वेदों का अध्ययन करवाया जाता है। ऐसे में 16 संस्कार (16 Sanskar In Hindi) में इस संस्कार का महत्व बहुत कम हो गया है।
#13. केशांत संस्कार
जब गुरु को यह विश्वास हो जाता है कि उसका शिष्य अब पूरी तरह से पारंगत हो चुका है तब वे उसका केशांत संस्कार करते हैं। दरअसल एक शिष्य को गुरुकुल में रहते हुए पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसलिए उसके सिर के बाल तथा दाढ़ी को कटवाना वर्जित होता है किंतु जब उसकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो एक बार फिर से उसका मुंडन किया जाता है तथा प्रथम बार दाढ़ी बनाई जाती है। यह संस्कार एक तरह से उसकी शिक्षा के पूरी होने का संकेत होता है।
#14. समावर्तन संस्कार
इस संस्कार का अर्थ होता है पुनः अपने घर को लौटना। एक बालक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पच्चीस वर्ष की आयु तक अपने गुरुकुल में ही निवास करता है तथा उसके आसपास सभी सज्जन पुरुष तथा उत्तम वातावरण होता है। शिक्षा के पूर्ण होने के पश्चात उसे पुनः अपने समाज में लौटना होता है।
इसलिए इससे पहले उसका समाज में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से उसके गुरु द्वारा उसका समावर्तन संस्कार किया जाता है जिसमें उसे समाज में ढालने का प्रयास किया जाता है। इस संस्कार के पश्चात एक मनुष्य गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर पुनः अपने घर व समाज को लौटता है तथा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है।
#15. विवाह संस्कार
शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अब वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर चुका होता है इसलिए अब उसका पूरे विधि विधान से विवाह करवाया जाता है। इसमें ब्रह्म विवाह सबसे उत्तम होता है तथा इसके अलावा भी सात अन्य प्रकार के विवाह होते हैं। विवाह संस्कार को करके वह मनुष्य अपने पितृ ऋण से मुक्ति पाता है।
वह इसलिए क्योंकि विवाह करने के पश्चात वह संतान को जन्म देगा तथा सृष्टि को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देगा। इसलिए इस संस्कार को करने के पश्चात उसकी पितृ ऋण से मुक्ति हो जाती है। सोलह संस्कारों (16 Sanskar) में से इस संस्कार का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जा रहा है। सभी ने विवाह संस्कार का सही से पालन करने की बजाए इसे एक पार्टी और बड़े आयोजन के तौर पर मनाना शुरू कर दिया है।
#16. अंत्येष्टि संस्कार
यह संस्कार मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार होता है जो उसकी देह-त्याग के पश्चात उसके पुत्रों/ भाई/ परिवार जनों के द्वारा किया जाता है। हमारा शरीर पंचभूतों से बना होता है जो हैं आकाश, पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि। इसलिए एक मनुष्य के देह-त्याग के पश्चात उसके शरीर को उन्हीं पांच तत्वों में मिलाना आवश्यक होता है जिससे कि उसकी आत्मा को शांति मिल सके। इसलिए यह संस्कार अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है अन्यथा उसकी आत्मा को कभी शांति नहीं मिलती है।
इस तरह से आज आपने 16 संस्कार के नाम (16 Sanskar In Hindi) और उनकी परिभाषा जान ली है। आज के समय में मुख्यतया जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णभेद, विवाह और अंत्येष्टि संस्कार ही किए जाते हैं। इनमें से भी कुछ को सही नियमों के अनुसार नहीं किया जाता है। जैसे कि नामकरण और विवाह संस्कार नियमानुसार करने की बजाए एक विशाल आयोजन बनकर रह गए हैं।
16 संस्कार से संबंधित प्रश्नोत्तर
प्रश्न: 16 प्रकार के संस्कार कौन कौन से हैं?
उत्तर: इस लेख में हमने विस्तार से 16 प्रकार के संस्कारों की व्याख्या की है। इनकी शुरुआत गर्भाधान संस्कार से होती है और अंत्येष्टि संस्कार से इनका अंत होता है। इनमें जन्म से पहले तीन संस्कार कर दिए जाते हैं तो वहीं मृत्यु के पश्चात एक संस्कार होता है।
प्रश्न: भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार का प्रथम संस्कार कौन सा है?
उत्तर: भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार का प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार होता है। यह संस्कार व्यक्ति विशेष के जन्म से पहले ही उसके माता-पिता के द्वारा किया जाता है।
प्रश्न: हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से चौथा संस्कार कौन सा है?
उत्तर: हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से चौथा संस्कार जातकर्म संस्कार होता है। यह संस्कार शिशु के जन्म लेने के बाद सबसे पहले किया जाता है। शिशु की गर्भनाल काटना, उसके मुँह को साफ करना, शहद चटाना और माँ का दूध पिलाना इस संस्कार में आता है।
प्रश्न: मृत्यु के बाद संस्कार कितने होते हैं?
उत्तर: मृत्यु के बाद एक ही संस्कार होता है जिसे अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह व्यक्ति विशेष के बड़े पुत्र के द्वारा किया जाता है। यदि पुत्र नहीं है तो भाई, पिता, पोता या अन्य करीबी और पिता की ओर से पुरुष रिश्तेदार के द्वारा इसे किया जाता है।
प्रश्न: पत्नी का अंतिम संस्कार कौन करता है?
उत्तर: पत्नी का अंतिम संस्कार करने का अधिकार सर्वप्रथम उसके पति को होता है। यदि पति जीवित नहीं है तो उसके पुत्र यह अंतिम संस्कार करते हैं। पुत्र भी नहीं है तो पति के परिवार में से सबसे करीबी पुरुष रिश्तेदार के द्वारा यह संस्कार किया जाता है।
नोट: यदि आप वैदिक ज्ञान 🔱, धार्मिक कथाएं 🕉️, मंदिर व ऐतिहासिक स्थल 🛕, भारतीय इतिहास, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य 🧠, योग व प्राणायाम 🧘♂️, घरेलू नुस्खे 🥥, धर्म समाचार 📰, शिक्षा व सुविचार 👣, पर्व व उत्सव 🪔, राशिफल 🌌 तथा सनातन धर्म की अन्य धर्म शाखाएं ☸️ (जैन, बौद्ध व सिख) इत्यादि विषयों के बारे में प्रतिदिन कुछ ना कुछ जानना चाहते हैं तो आपको धर्मयात्रा संस्था के विभिन्न सोशल मीडिया खातों से जुड़ना चाहिए। उनके लिंक हैं:
अन्य संबंधित लेख:
संस्कार को लेकर बहुत अच्छी जानकारी दी है। इससे पहले कभी पढ़ने को नहीं मिली।
आपका बहुत-बहुत आभार हरीश जी
राम राम जी….
मैं इन सभी 16 संस्कारों को खोज रहा था, जिनके बारे में मुझे जानना चाहिए था। आपका बहुत बहुत धन्यवाद…सनातन धर्म बहुत महान है इसमें हर एक विषय को अच्छे से बताया जाता है…राम राम जी