अक्षय तृतीया का जितना महत्व सनातन धर्म में है, उतना ही महत्व जैन धर्म (Akshaya Tritiya Jainism In Hindi) में भी है। जैन धर्म में इस दिन दान करने की परंपरा है मुख्यतया भोजन या गन्ने के रस का दान। इसी दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ जी ने पहली बार आहार ग्रहण किया था। उनको आहार देने वाले राजा श्रेयांश को अक्षय पुण्य प्राप्त हुआ था जिस कारण इस दिन को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाने लगा।
साथ ही जैन धर्म में वर्षीतप पर्ण (Varshitap Parna) का संबंध भी अक्षय तृतीय से ही होता है। आज हम आपके साथ अक्षय तृतीय का जैन धर्म में महत्व, इसके पीछे जुड़ी कथा तथा अन्य सभी तरह की जानकारी सांझा करेंगे।
Akshaya Tritiya Jainism In Hindi | अक्षय तृतीया का जैन धर्म में महत्व
अक्षय तृतीय का त्यौहार जैन धर्म में ताप व त्याग का परिचय देता है। इसकी कहानी जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ से जुड़ी हुई है। उन्होंने ही जैन धर्म की आधारशिला रखी थी और लोगों को ज्ञान देने का काम किया था। ऐसे में हिन्दू धर्म के साथ-साथ जैन धर्म में अक्षय तृतीय के दिन क्या कुछ हुआ था और क्यों इसे इतना चाव के साथ मनाया जाता है, आइए इसके बारे में जान लेते हैं।
भगवान ऋषभदेव की शिक्षा व संदेश
जैन धर्म के अनुसार, इस युग के तीसरे समयकाल में अयोध्या के राजा नाभि के घर में जैन धर्म के संस्थापक भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था जो कि चौबीस तीर्थंकरों में से प्रथम थे। उन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। उस समय तक यह पृथ्वी मनुष्यों के लिए केवल एक भोग भूमि थी, ना कि कर्म भूमि।
कहने का तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्यों को खेती-बाड़ी, भोजन, शिल्पकला, व्यवस्था इत्यादि किसी भी चीज़ का ज्ञान नहीं था। उस समय तक मनुष्यों की सभी आवश्यकताएं कल्पवृक्ष से पूरी हो जाया करती थी लेकिन समय के साथ-साथ इन वृक्षों की प्रभावशीलता समाप्त होती चली गई।
तब भगवान ऋषभदेव ने सभी को कर्म करने का संदेश दिया। उन्होंने सभी को खेती करना, भोजन उगाना, व्यापार करना, भवन बनाना, पढ़ना-लिखना इत्यादि की शिक्षा दी। इसके बाद से ही समाज में नियम, सिद्धांत, व्यवस्था इत्यादि लागू हुई।
भगवान ऋषभदेव का सांसारिक मोह त्याग
अपने पिता के बाद ऋषभदेव अयोध्या व भारतभूमि के राजा बने। एक दिन उनकी सभा में स्वर्ग के राजा इंद्र देव आए हुए थे और दोनों मिलकर नृत्यांगनाओं का नृत्य देख रहे थे। तभी एक नृतिका निलांजलि की आयु पूरी हो गई और उसकी मृत्यु हो गई।
मृत्यु का यह कटु सत्य देखकर ऋषभदेव जी का मन बेचैन हो गया और उन्होंने उसी समय सांसारिक सुख-दुःख, मोह-माया का त्याग करने का निर्णय ले लिया। इसके बाद उन्होंने अपना राज्य सबसे बड़े पुत्र भरत को सौंप दिया तथा बाकि के 99 पुत्रों और उनके पुत्रों में भारत के अन्य राज्य बाँट दिए। सभी पुत्रों में अपना राज्य बाँटने के पश्चात वे सबकुछ छोड़कर वन में चले गए।
भगवान ऋषभदेव की दीक्षा व उपवास
इसके बाद ऋषभदेव जी ने वस्त्रों का भी त्याग कर दिया और दीक्षा प्राप्त करके जैन मुनि बन गए। उनके साथ कई अन्य राजा व प्रजा के लोग भी दीक्षा प्राप्त करने आए। दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने छह माह तक अन्न-जल का त्याग कर दिया और मौन व्रत धारण किया।
उनके साथ आए कुछ लोग धीरे-धीरे भूख-प्यास से व्याकुल हो गए। इसके बाद उन लोगों के द्वारा जैन धर्म में विभिन्न संप्रदायों की शुरुआत की गई। किंतु भगवान ऋषभदेव अपने उपवास पर अडिग रहे। छह माह के उपवास के बाद वे आहारचर्या के लिए निकले।
भगवान ऋषभदेव की आहारचर्या
आहारचर्या के लिए उन्हें गाँव-नगर भ्रमण करते हुए लोगों को शिक्षा देनी होती थी और बदले में लोग उन्हें कुछ दिया करते थे। चूँकि भगवान ऋषभदेव ने मनुष्यों को कुछ समय पहले ही सब शिक्षा दी थी और खेती-भोजन के महत्व को समझाया था, इसलिए उन लोगों को आहारदान देने की बात का ज्ञान नहीं था।
ऋषभदेव जी जहाँ-जहाँ भी आहारचर्या के लिए जाते, लोग उन्हें अज्ञानतावश बहुमूल्य वस्तुएं, धन, आभूषण इत्यादि भेंट स्वरुप दे दिया करते थे। उन्हें कहीं से भी आहार प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार एक वर्ष से भी ज्यादा का समय बीत गया लेकिन ऋषभदेव जी ने अन्न-जल ग्रहण नहीं किया था।
राजा श्रेयांश को आया स्वप्न
राजा श्रेयांश भगवान ऋषभदेव के पोत्र (पोते) थे और हस्तिनापुर राज्य के राजा। एक दिन उन्हें रात में स्वप्न आया जिसके अंत में उन्हें आहार का दान देने की बात कही गई। उस स्वप्न में उन्होंने देखा कि कुछ ही दिनों में भगवान ऋषभदेव उनके नगर में पहुंचेंगे और तब उन्हें उनका स्वागत करके भेंट स्वरुप कुछ आहार देना है। इसके बाद उन्होंने अपने मंत्रियों से इसकी चर्चा की और राज्य में भव्य तैयारियां कर दी गई।
राजा श्रेयांश के द्वारा ऋषभदेव जी को इक्षुरस भेंट
जैन धर्म की मान्यता के अनुसार, भगवान ऋषभदेव जी को अन्न-जल का त्याग किए हुए 13 माह से ज्यादा का समय हो चुका था। इसमें छह माह उनके उपवास के थे तो 7 माह अन्न-जल की भेंट ना मिल पाने के कारण भूखे रहना पड़ा था।
एक दिन भगवान ऋषभदेव गाँव-नगर भ्रमण करते हुए अपने पोत्र के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। भगवान ऋषभदेव को अपने नगर में आते देख प्रजाजनों की भारी भीड़ उनके दर्शन करने उमड़ पड़ी। राजा श्रेयांश भी दौड़ते-दौड़ते अपने भवन से बाहर आए और भगवान ऋषभदेव जी का स्वागत किया।
राजा श्रेयांश ने ऋषभदेव जी को प्रणाम किया और उनके चरण धोए। स्वागत के बाद उन्होंने ऋषभदेव जी को पीने के लिए इक्षुरस/ शोरडी गन्ने का रस दिया। तब भगवान ऋषभदेव जी ने 13 मास बाद अपना उपवास तोड़कर गन्ने के रस को पिया था। यह भगवान आदिनाथ का दीक्षा प्राप्त करने के बाद का प्रथम आहार था।
राजा श्रेयांश के नगर में देवों की कृपा व पंचाष्चर्य
राजा श्रेयांश के द्वारा भगवान आदिनाथ को प्रथम आहार देने पर देवता अत्यधिक प्रसन्न हुए। इंद्र व अन्य सभी देवता उसी समय स्वर्ग से हस्तिनापुर पहुँच गए और राजा श्रेयांश की नगरी को पंचाष्चर्य प्रदान किए। इन पंचाष्चर्य में आते हैं:
- नगर पर रत्नों, आभूषणों की वर्षा
- साथ ही पुष्प वर्षा होना
- उद्घोष होना या तेज आवाज़ में बाजों का बजना
- पूरे नगर में सुगन्धित वायु बहना
- राजा की प्रशंसा में जय-जय/ अहोदानम-अहोदानम का जयकारा होना।
भगवान ऋषभदेव का राजा श्रेयांश को आशीर्वाद
आहार ग्रहण करने के पश्चात भगवान ऋषभदेव ने राजा श्रेयांश को अक्षीण भोजन/ अक्षय भोजन का आशीर्वाद दिया था। अक्षय का अर्थ होता है कभी ना समाप्त होने वाले। उसके बाद से राजा श्रेयांश के नगर में भोजन की कभी कमी नही रही और कोई भी भूखा नही रहा। भगवान ऋषभदेव को प्रथम आहार देने के कारण राजा श्रेयांश को अक्षय पुण्य भी प्राप्त हुआ था। आशीर्वाद देकर भगवान ऋषभदेव वहां से आगे तपस्या करने चले गए थे।
राजा श्रेयांश का सम्मान व दानप्रथा का शुरू होना
इस घटना की सूचना मिलते ही राजा भरत व अन्य राजा हस्तिनापुर पहुंच गए थे। भरत के द्वारा राजा श्रेयांश का सम्मान किया गया। इसी के साथ राजा भरत ने संपूर्ण भारत में भोजन के दान की शुरुआत की और राजा श्रेयांश को दानतीर्थ प्रवर्तक की संज्ञा दी गई।
अक्षय तृतीय नाम का अर्थ
जिस दिन भगवान आदिनाथ ने राजा श्रेयांश के हाथों इक्षु रस को पिया था वह दिन वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया थी। इक्षु से अक्षय तथा वैसाख शुक्ल तृतीया से तृतीया को मिलाकर इस दिन को अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाने लगा।
एक ओर मान्यता के अनुसार, वैसाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को राजा श्रेयांश को अक्षयभोजन व अक्षयपुण्य का फल प्राप्त हुआ था। इसलिए इसे अक्षय तृतीया नाम दिया गया।
Varshitap Parna | जैन धर्म में वर्षीतप पर्ण
भगवान आदिनाथ लगभग एक वर्ष से ज्यादा समय तक भूखे रहे थे और उसके बाद उन्होंने राजा श्रेयांश के हाथों से भोजन ग्रहण किया था। इस प्रकार उन्होंने एक वर्ष तक कठोर तपस्या की थी। इसलिए इसे जैन धर्म में वर्षीतप की संज्ञा दी गई।
आज भी जैन धर्म के लोग वर्षीतप पर्ण की तपस्या करते हैं। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि से शुरू होता है जो वैसाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तक चलता है। इसमें जैन धर्मावलम्बियों को हर माह की चौदस को उपवास रखना होता है जिसमें उन्हें केवल गर्म पानी का सेवन करना होता है। फिर अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर व्रत को समाप्त किया जाता है।
अक्षय तृतीय का जैन धर्म में महत्व
भगवान ऋषभदेव के द्वारा प्रथम बार आहार ग्रहण करने के कारण, इस दिन का जैन धर्म में महत्व अत्यधिक बढ़ गया था। कुछ लोग इस दिन पारायण कर एक वर्ष का व्रत समाप्त करते हैं तो कुछ लोग इस दिन खुलकर दान करते हैं। जैन लोगों के द्वारा इस दिन जगह-जगह मुख्य रूप से गन्ने के रस का दान किया जाता है।
साथ ही इस दिन को सभी कार्यों के लिए अत्यंत शुभ माना गया है जैसे कि गृह प्रवेश, नई चीज़ खरीदना, विवाह-लग्न करवाना, किसी काम की शुरुआत करना इत्यादि। कुल मिलाकर यह दिन जैन धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के लोगों के लिए भी अत्यंत शुभ दिन माना गया है।
जैन धर्म में अक्षय तृतीया क्यों मनाया जाता है?
अब हमने आपको ऊपर जो सब जानकारी दी है, उसे पढ़कर अवश्य ही आपको इस चीज़ का ज्ञान हो गया होगा कि आखिरकार किस कारण से जैन धर्म में अक्षय तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन भगवान आदिनाथ ने 13 माह के उपवास के बाद राजा श्रेयांश के हाथों गन्ने का रस पिया था। इसी कारण इस दिन का महत्व अत्यधिक बढ़ गया था।
इस तरह से आपने अक्षय तृतीय का जैन धर्म से क्या संबंध है (Akshaya Tritiya Jainism In Hindi), इसके बारे में जानकारी ले ली है। आशा है कि हमारे द्वारा दी गई जानकारी आपको अच्छी लगी होगी।
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