स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार (Swami Dayanand Saraswati Ke Samajik Vichar) बहुत ही उन्नत थे जिनके बारे में आज हम आपको बताएँगे। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था जिन्होंने हिंदू धर्म व भारत देश की स्वतंत्रता में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने सभी वेदों व शास्त्रों का अध्ययन किया था व उससे प्रभावित होकर वेदों की ओर चलो का नारा दिया था अर्थात उनका उद्देश्य संपूर्ण विश्व को वेदों की महत्ता के बारे में बताना था।
इसी के साथ उन्होंने हिंदू धर्म में समय-समय पर फैली कई भ्रांतियां, आडंबरों व कुरीतियों का विरोध किया व समाज सुधार का कार्य किया। उन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप लाखों लोग जागृत हुए व समाज में कई कुप्रथाओं का अंत हो गया या उनका विरोध होना शुरू हो गया। आज हम स्वामी दयानंद सरस्वती जी के द्वारा किए गए विभिन्न सामाजिक सुधार कार्यों के बारे में जानेंगे।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती ने कई क्षेत्रों में समाज सुधार के कार्य किए थे। उदाहरण के तौर पर उन्होंने कर्म आधारित जाति व्यवस्था पर जोर दिया था, ना कि जन्म आधारित। इसी के साथ ही उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, दहेज़ प्रथा, पर्दा प्रथा इत्यादि का मुखर विरोध भी किया था। इसके अलावा उन्होंने और भी कई समाज सुधार के कार्य किए थे।
इन्हें ही हम सभी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार (Dayanand Saraswati Ke Samajik Vichar) या सुधार कार्य कह सकते हैं। अब उनके द्वारा जो भी समाज सुधार के कार्य किए गए थे, उनमें से 10 प्रमुख कार्यों या विचारों को हम आपके सामने रखने जा रहे हैं।
#1. कर्म आधारित जाति व्यवस्था
स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में व्याप्त जन्म आधारित जाति व्यवस्था को चुनौती दी। उनके अनुसार व्यक्ति के कर्म के आधार पर उसकी जाति निर्धारित होनी चाहिए ना कि उसके माता-पिता की जाति के आधार पर। इसके लिए उन्होंने कई आंदोलन चलाए और विभिन्न पंडितों के साथ शास्त्रार्थ भी किया। हालांकि उनके इस विचार का पुरजोर विरोध हुआ तथा उनकी यह अपेक्षा सिमट कर रह गई।
#2. शूद्रों का उद्धार
उन्होंने भारतीय समाज में शूद्रों के उद्धार का भी कार्य किया। जैसे कि उन्हें भी बाकियों के जैसे समान शिक्षा के अवसर प्राप्त हो, कोई उन्हें नीची नज़रों से ना देखे, उनका भी उतना ही सम्मान हो जितना बाकियों का होता है इत्यादि। अन्य समाज सुधारों की ही भांति उन्होंने भी शूद्रों के उद्धार के लिए कई कार्य किए थे।
#3. महिलाओं को शिक्षा
वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान बहुत सम्मानजनक था व उन्हें भी शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। हिंदू धर्म में कोई भी यज्ञ स्त्री के बिना पूरा नहीं माना जाता था। देवताओं के साथ देवियों का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने समय-समय पर अपने ज्ञान व शक्ति का परिचय दिया है। किंतु समय के साथ-साथ महिलाओं को केवल घर की चौखट तक ही सीमित कर दिया गया था।
उन्हें बाहर जाने या पढ़ने की अनुमति नहीं होती थी। शुरू से ही उन्हें गृहस्थी के काम में लगा दिया जाता था। स्वामी दयानंद जी ने इस व्यवस्था का विरोध किया व महिलाओं की शिक्षा व समान अवसर की बात कही। वे महिलाओं को उच्च शिक्षा देने के समर्थक थे।
#4. बाल विवाह
भारत देश के कुछ हिस्सों में बच्चों का विवाह करवाने की परंपरा थी अर्थात छोटी आयु में ही उन्हें शादी के बंधन में बाँध दिया जाता था। इस कारण वे अपने जीवन के ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन नहीं कर पाते थे।
वेदों में मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया था जिसमें ब्रह्मचर्य आश्रम जन्म से लेकर 25 वर्ष की आयु तक का होता था। इसमें मनुष्य को शिक्षा, सैन्य बल व अन्य काम सिखने होते थे जो उसे अपने गृहस्थ जीवन में करने होते थे किंतु जल्दी शादी करवा देने से गृहस्थ जीवन ब्रह्मचर्य जीवन में बाधा बनता था। इसलिए स्वामी जी ने इस कुरीति का भी विरोध किया।
#5. सती प्रथा
यह प्रथा वैसे तो लगभग समाप्त हो गई थी लेकिन फिर भी इसे कई जगहों पर अपनाया जाता था। यह प्रथा मुख्य तौर पर तब शुरू हुई थी जब भारत देश पर विदेशी आक्रांताओं खासकर अफगान व मुगलों का आक्रमण बहुत बढ़ गया था। उनके अंदर मानवता बिल्कुल नहीं होती थी। वे युद्ध में हमारे राजाओं को छलपूर्वक हरा देते थे व उसके बाद महल में आकर विधवा हो चुकी स्त्रियों के साथ दुष्कर्म किया करते थे। इसलिए उन क्रूर राक्षसों से अपने सम्मान को बचाने के लिए सती प्रथा की शुरुआत की गई थी।
अब देश अंग्रेजों के हाथ में था तथा अंग्रेज़ अफगान व मुगलों से इस मामले में बहुत ज्यादा सभ्य थे। इसलिए अब इस प्रथा का कोई औचित्य नहीं रह गया था व ना ही इसे वेदों में लिखा गया था। इसलिए स्वामी जी ने इसे लोगों को समझाया व एक तरह से इस प्रथा का अंत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
#6. पर्दा प्रथा
इस प्रथा का भी वैदिक काल में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। यह प्रथा भी विदेशी आक्रांताओं से अपनी बहन-बेटियों के सम्मान की रक्षा करने के लिए शुरू की गई थी जिसका अब कोई औचित्य नहीं रह गया था। इसलिए स्वामी जी ने इस प्रथा का भी विरोध किया।
#7. विधवा विवाह
समाज में एक पुरुष जिसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी हो, उसे पुनः विवाह की अनुमति थी किंतु एक विधवा महिला को पुनः विवाह नहीं करने दिया जाता था। साथ ही एक विधवा महिला का जीवन बहुत कठोर बना दिया गया था, लोग उसे तिरस्कार की नज़रों से देखते थे, उसे समाज के शुभ कार्यों से वंचित रखा जाता था व अपमानित भी किया जाता था।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने विधवा विवाह के लिए एक आंदोलन चलाया व लोगों को जागरूक किया कि जिस प्रकार एक विधुर पुरुष को फिर से विवाह करने का अधिकार प्राप्त है, ठीक उसी प्रकार विधवा महिला को भी यह अधिकार मिलना चाहिए।
#8. बहु विवाह
यह प्रथा तब प्रचलन में आई थी जब प्राचीन समय में युद्ध बहुत हुआ करते थे। उस समय सैनिक केवल पुरुष ही होते थे व युद्ध होने पर उनके जान-माल की बहुत हानि होती थी। इस कारण नगर में पुरुष कम व महिलाएं ज्यादा होने लगी थी। तब पुरुषों के द्वारा बहु विवाह की प्रथा प्रचलन में आई थी।
अब चूंकि युद्ध नहीं होते थे तो इस प्रथा का भी कोई औचित्य नहीं रह गया था। इसलिए स्वामी जी ने पुरुषों के द्वारा किए जा रहे बहु विवाह प्रथा का भी पुरजोर विरोध किया।
#9. योग व प्राणायाम का प्रचार
स्वामी दयानंद जी को लोगों के स्वास्थ्य की भी चिंता थी। इसलिए उन्होंने योग व प्राणायाम का प्रचार किया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इससे प्रेरित हो व इसे अपने जीवन का एक नियम बनाएं। वे जगह-जगह जाकर लोगों को योग व प्राणायाम करने की महत्ता के बारे में बताते थे व उनसे मिलने वाले लाभों पर चर्चा करते थे।
वे कहते थे कि यदि मनुष्य शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ ही नहीं रहेगा तो वह बाकी कोई कार्य कर ही नहीं पाएगा। इसलिए हमारा स्वास्थ्य ही सबसे महत्वपूर्ण है। वे लोगों को प्रतिदिन सुबह उठकर योग करने को प्रेरित करते थे।
#10. राष्ट्र प्रेम की भावना का संचार
भारत देश पिछले एक हज़ार से भी ज्यादा वर्षों से विदेशी आक्रांताओं के भीषण आक्रमण झेल रहा था। 12वीं सदी के बाद से तो भारत कभी अफगान तो कभी मुगल और अब अंग्रेजों के अधीन था। इस कारण भारतीय संस्कृति व हिंदू धर्म का एक तरह से निरंतर पतन हो रहा था। पहले अफगान व मुगल राजाओं ने हिन्दुओं का सरेआम कत्लेआम मचाया था व करोड़ों हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कर डाला था। अब अंग्रेज़ अपनी कुटील बुद्धि से भारतीयों को पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकर्षित कर रहे थे।
ऐसे समय में स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने देश के लोगों के मन में पहली बार स्वतंत्रता की ललक जगाई। उन्होंने आजादी व हिंदू धर्म के प्रचार के उद्देश्य से आर्य समाज की स्थापना की। इसी के साथ उन्होंने देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए विभिन्न राज्यों के लोगों के बीच में आम भाषा संवाद के लिए अंग्रेजी की बजाए हिंदी भाषा पर बल दिया। उन्होंने ही प्रथम बार स्वराज का नारा दिया जिसे आगे चलकर लोकमान्य तिलक ने अपनाया। महात्मा गाँधी भी स्वतंत्रता की लड़ाई को शुरू करने में स्वामी जी का महत्वपूर्ण योगदान मानते थे।
निष्कर्ष
इस तरह से आज के इस लेख में आपने स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार (Swami Dayanand Saraswati Ke Samajik Vichar) व उनके द्वारा किए गए कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी ले ली है।
दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार से संबंधित प्रश्नोत्तर
प्रश्न: स्वामी दयानंद के सामाजिक विचार क्या थे?
उत्तर: स्वामी दयानंद के सामाजिक विचार कर्म आधारित जाति व्यवस्था, महिला शिक्षा, योग व प्राणायाम का प्रचार करना व राष्ट्र प्रेम की भावना को जागृत करने से संबंधित थे।
प्रश्न: स्वामी दयानंद ने समाज सुधार के लिए क्या किया?
उत्तर: स्वामी दयानंद ने समाज सुधार के लिए कई कार्य किए थे। उदाहरण के तौर पर उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, दहेज़ प्रथा, पर्दा प्रथा इत्यादि का मुखर विरोध किया था।
प्रश्न: दयानंद सरस्वती के अनुसार सामाजिक समानता क्या है?
उत्तर: दयानंद सरस्वती के अनुसार सामाजिक समानता कर्म आधारित जाति व्यवस्था से है, ना कि जन्म आधारित जाति से। इसके अनुसार मनुष्य के कर्मों के अनुसार उसकी जाति का निर्धारण किया जाना चाहिए।
प्रश्न: स्वामी दयानंद सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार कौन सा था?
उत्तर: स्वामी दयानंद सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक सुधार आर्य समाज की स्थापना किया जाना और वेदों की ओर लौटो का नारा देना था।
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