आज हम आपके साथ स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार (Swami Dayanand Saraswati Ke Dharmik Vichar) सांझा करेंगे। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात के ब्राह्मण परिवार में हुआ था किंतु एक दिन वे अपने पिता से भगवान के अस्तित्व के लिए लड़ गए थे। उनका मानना था कि हिंदू धर्म का मूल ज्ञान केवल वेदों में है व उसमें मनुष्य को जीवन जीने की सर्वोत्तम पद्धति बताई गई है।
वे धर्म में व्याप्त कई कुरीतियों जैसे कि सती प्रथा, बाल विवाह, शूद्रों का शोषण इत्यादि के विरुद्ध (Dayanand Saraswati Ke Dharmik Rajnitik Vichar) थे। इसके साथ ही उन्होंने कई समाज सुधार के कार्य भी किए जैसे कि महिलाओं को शिक्षित करना व विधवा विवाह में योगदान इत्यादि। आइए दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचारों के बारे में जान लेते हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदू धर्म से थे लेकिन उन्होंने हिंदू धर्म के पुराणों और शास्त्रों को मानने से मना कर दिया था। उन्होंने हिंदू धर्म के ऊपर अपने विचार रखें व कई नीतियों का खंडन भी किया। हालांकि वे वेदों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और केवल इसी का ही समर्थन करते थे।
इतना ही नहीं उन्होंने विश्व के अन्य धर्मों जैन, बौद्ध, सिख, इस्लाम व ईसाई पर भी अपने विचार प्रकट किए। इसमें उन्होंने इस्लाम धर्म की सबसे ज्यादा निंदा की। दयानंद सरस्वती को विभिन्न धर्मों के ऊपर अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से कहने पर विरोधावास व कई षड्यंत्रों का सामना भी करना पड़ा। आइए उनके सभी धर्मों के प्रति विचारों को जानते हैं।
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हिंदू धर्म
जहां एक ओर उन्होंने विश्व के सभी धर्मों में केवल हिंदू धर्म को सर्वोच्च माना और वेदों को जीवन जीने की उच्च पद्धति बताया तो दूसरी ओर उन्होंने श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे ईश्वर के रूप को ईश्वर मानने से मना कर दिया और उन्हें इतिहास के केवल महापुरुष बताया। उन्होंने जहां एक ओर वेदों को सर्वोच्च बताया तो वहीं मूर्ति पूजा का पुरजोर विरोध किया।
उन्होंने वेदों, शास्त्रों, संस्कृत भाषा व अन्य धार्मिक पुस्तकों का संपूर्ण ज्ञान लिया व उसके बाद पूरे भारत देश का भ्रमण कर विभिन्न पंडितों व ब्राह्मणों के साथ धर्म के ऊपर शास्त्रार्थ किया। 22 अक्टूबर 1869 को उन्होंने वाराणसी में 12 विशेषज्ञ पंडितों व 27 शोध के विद्यार्थियों के साथ शास्त्रार्थ किया जिसका मुख्य शीर्षक था “क्या वेदों को मूर्ति पूजा के ऊपर माना जाना चाहिए?” जिसमें उन्होंने विजय प्राप्त की। इस सभा में लगभग पचास हजार लोग उपस्थित थे।
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जैन धर्म
उन्होंने जैन धर्म को सबसे भयानक धर्म कहा। उनके अनुसार जैन धर्म अपनी जीव रक्षा व अन्य नीतियों में इतने ज्यादा डूबे हुए हैं कि वे दूसरे धर्म के लोगों के प्रति असहिष्णुता व शत्रुता का भाव रखने लगते हैं। जैन लोगों के अनुसार यदि कोई जीव हत्या या उनके धर्म के विरुद्ध काम कर रहा है तो वह गलत है।
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बौद्ध धर्म
उन्होंने बौद्ध धर्म को एक हास्यास्पद धर्म के रूप में लिया जिसके अनुसार जानवरों जैसे कि कूतों और गधों को भी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। उन्होंने बौद्ध धर्म को नास्तिक धर्म भी बताया। साथ ही उन्होंने बौद्ध धर्म की इस नीति का भी हास्य किया जिसमें पृथ्वी के निर्माण की बात को नकारा गया है। स्वामी जी ने कहा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह बात बिल्कुल अनुचित है।
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सिख धर्म
उन्होंने सिख धर्म की कुछ मामलों में प्रशंसा की किंतु वे उनकी कुछ नीतियों व काल्पनिक कहानियों के विरुद्ध थे। उनके अनुसार सिख धर्म के प्रथम गुरु गुरु नानक देव जी एक अच्छे इंसान थे लेकिन वे इतने बुद्धिमान नहीं थे। इसके साथ ही गुरु नानक देव जी को अच्छे से वेदों व शास्त्रों का ज्ञान नहीं था लेकिन फिर भी उन्होंने बिना पढ़े अलग नीतियां बनाई। इसी के साथ उन्होंने गुरु नानक के द्वारा “निर्भय” शब्द के स्थान पर “निर्भो” शब्द के गलत प्रयोग पर उनकी साक्षरता पर प्रश्नचिन्ह लगाया।
स्वामी जी ने गुरु नानक देव जी के बाद के गुरुओं के प्रति अपना खेद प्रकट किया क्योंकि उन्होंने अपने समय में कई काल्पनिक कहानियां गढ़ी जो कि सही नहीं थी। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि गुरु नानक के पास चमत्कारिक शक्तियां थी व उन्होंने देवताओं से भेंट की थी। हालांकि उन्होंने सिख गुरुओं व मुख्यतया अंतिम गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी का पंजाब व भारत में मुगलों की दमनकारी नीतियों के प्रति किए गए आंदोलन की सराहना की।
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इस्लाम धर्म
स्वामी दयानंद सरस्वती इस्लाम धर्म के कट्टर विरोधी (Swami Dayanand Saraswati On Islam) थे और उन्होंने इसे विश्व व मानव सभ्यता के लिए त्रासदी बताया था। उन्होंने इस्लाम धर्म को हमेशा विश्व में युद्ध, कट्टरता व हिंसा करने वाला धर्म बताया। उनके अनुसार जिस धर्म में गैर इस्लाम वालों को अल्लाह के रास्ते पर लाने अन्यथा मारने की नीति, विश्व की आधी जनसंख्या अर्थात महिलाओं को केवल अपने उपभोग की वस्तु समझने की नीति, विश्व के अन्य जीव जंतुओं के प्रति इतनी ज्यादा हिंसक नीति हो वह धर्म कहलाने के लायक तक नहीं है।
उन्होंने अल्लाह के पैगम्बर मोहम्मद को पाखंडी व ढोंगी बताया जिन्होंने मानव सभ्यता के अंदर कटुता घोलने के सिवाए कुछ नहीं किया। स्वामी जी ने कहा कि मोहम्मद ने केवल अपने स्वार्थ व पाखंड को सिद्ध करने के लिए इसे भगवान का नाम दिया। अन्यथा कोई भगवान कैसे दूसरों से इतनी घृणा कर सकता है कि वह उन्हें मारने या तड़पाने तक का आदेश दे। उन्होंने कुरान को भगवान या अल्लाह के शब्द नहीं अपितु एक मानव के द्वारा कुटील नीति करार दिया।
इसके अलावा उन्होंने इस्लाम धर्म के ऊपर अन्य बहुत टिप्पणियां की व इसे धर्म ही नहीं माना। बाकी धर्मों के लिए उनके मन में थोड़ा आदर सम्मान था या उनकी कुछ नीतियों का वे समर्थन करते थे किंतु इस्लाम को वे धर्म की संज्ञा ही नहीं देते थे व इसे समाप्त करने के पक्षधर थे। उनके अनुसार इस्लाम के कारण मानव सभ्यता एक दिन खतरे में पड़ जाएगी व अपने अस्तित्व के लिए लड़ेगी क्योंकि इस्लाम का जितना ज्यादा प्रचार-प्रसार होगा उतनी ही विश्व में कट्टरता, हिंसा व नफरत की भावना बढ़ेगी।
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ईसाई धर्म
उन्होंने ईसाई धर्म का विश्लेषण करने के लिए उनकी धार्मिक पुस्तक बाइबिल का संपूर्ण अध्ययन किया। उन्होंने बाइबिल का विश्लेषण वैज्ञानिक, प्रमाणिकता, नैतिकता व अन्य गुणों के आधार पर किया। उनके अनुसार बाइबिल में ऐसी कई नीतियां है जो मनुष्य के क्रूर स्वभाव की प्रशंसा करती है। बाइबिल में कई जगह मानव द्वारा किए गए जघन्य अपराध, नीचता, क्रूरता व प्रपंच को बढ़ावा दिया गया है जो मनुष्य के नैतिक धर्म के विरुद्ध है।
इसी के साथ उन्होंने बाइबिल के एक कथन के बारे में बताया जिसमें भगवान आदम के द्वारा एक फल खाने से डर जाते हैं व उससे ईर्ष्या करने लगते हैं क्योंकि वह फल खाकर उसमें मानव शक्ति आ जाएगी और वह भगवान के समान हो जाएगा। उन्होंने ईसा मसीह की माता मैरी का हमेशा के लिए कुंवारी रहना व कभी ना संभोग करने के ऊपर भी प्रश्न उठाए। उनके अनुसार यदि उनकी माता ने कभी संभोग नहीं किया तो ईसा मसीह पैदा कैसे हुए और यदि हुए भी तो यह स्वयं भगवान के बनाए नियमों के उलट है।
नोट: ऊपर दिए गए सभी विचार व मत स्वामी दयानंद सरस्वती के व्यक्तिगत विचार हैं। धर्मयात्रा का इनसे किसी भी प्रकार का कोई संबंध नही है।
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