राम और कृष्ण दोनों बिल्कुल भिन्न भी थे और आवश्यक भी! जाने कैसे

Lord Ram And Lord Krishna Difference In Hindi

भगवान विष्णु के इस कल्प में 10 अवतार होने हैं जिनमें से 9 हो चुके (Difference Between Ram And Krishna In Hindi) हैं। इन सभी 9 अवतारों में जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय और पूजनीय अवतार (Lord Ram And Lord Krishna Difference In Hindi) हैं वे हैं त्रेतायुग में जन्मे श्रीराम व द्वापर युग में जन्मे श्रीकृष्ण। हम सभी ने दोनों की जीवन गाथाओं को पढ़ा होगा, सुना होगा और सीरियल-मूवी इत्यादि के माध्यम से देखा भी होगा किंतु क्या आपने कभी इन दोनों के बीच तुलना की?

एक ही भगवान के दो रूपों के बीच में तुलना करने मात्र से ही हम भयभीत हो जाते हैं लेकिन जरा उन श्रीहरि के बारे में भी तो सोचों जिन्होंने हमे अलग-अलग शिक्षा देने के लिए ही यह दोनों पूर्ण अवतार लिए थे जिन्होंने अपना संपूर्ण मानव जीवन जिया था और 16 संस्कारों का निर्वहन किया था।

श्रीराम व श्रीकृष्ण में तुलना करना इसलिये आवश्यक हैं क्योंकि दोनों एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न चरित्र, व्यक्तित्व, मूल्यों वाले थे लेकिन थे दोनों ही आवश्यक। दोनों के बीच इतना अंतर था कि एक को अपने माता-पिता के लिए राज सिंहासन का त्यागकर 14 वर्ष का कठिन वनवास भोगना पड़ा था जबकि दूसरे के लिए उनके माता-पिता को 20 वर्षों से अधिक समय तक कठोर कारावास भुगतना पड़ा था। दोनों इसलिये आवश्यक थे क्योंकि एक ने त्रेता युग में होते हुए भी दिखला दिया था कि सतयुग की शुरुआत कितनी मनोहर रही होगी जबकि दूसरे ने द्वापर युग में होते हुए भी दिखला दिया था कि कलियुग का अंत किन भीषण घटनाओं के कारण होगा।

अब इसे समझ भी लेते हैं। सबसे पहले बात करते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की। भारत के सबसे बड़े राज्य अयोध्या के महाराज दशरथ की सबसे बड़ी रानी कौशल्या के पुत्र व अयोध्या की प्रजा के सर्वाधिक प्रिय श्रीराम के अगले दिन भोर होते ही राज्याभिषेक की तैयारियां चल रही थी। पूरी अयोध्या की प्रजा में इतना उल्लास था कि संपूर्ण नगरी रातभर सोई नही थी।

सुबह होते ही श्रीराम को कुछ अनहोनी होने का अंदेशा हुआ तो अपने पिता के कक्ष में गए। दशरथ ने सारी बात बता दी और कहा कि तुम विद्रोह कर दो और राजसिंहासन ले लो। तुम अयोध्या की प्रजा के साथ-साथ सैनिकों के भी प्रिय हो, इसलिये संभाल लो अयोध्या का राज सिंहासन। श्रीराम के पास एक ओर अयोध्या का सुगम राज सिंहासन था और उसका विरोध करने वाला कैकयी और मंथरा के अलावा कोई नही था, कोई भी नही, स्वयं उनके पिता भी नही जो वचनों से बंधे थे किंतु श्रीराम ने अपने पिता की आन की खातिर सहजता से 14 वर्षों का कठिन वनवास चुना और सभी सुखों को त्यागकर चल दिए अपने जीवन के चौदह वर्ष वन में बिताने को।

अकेले नही गए, साथ में गयी उनकी पत्नी सीता और छोटा भाई लक्ष्मण। वनवास केवल श्रीराम को मिला था लेकिन अपने पति और भाई की सेवा करने का दायित्व उन पर था। लक्ष्मण तो इतने व्याकुल थे कि अपनी पत्नी उर्मिला तक को साथ लेकर नही गए और उनसे कह गए कि तुम साथ में होगी तो मैं भईया-भाभी की सही तरह से सेवा नही कर पाउँगा। सतयुग के शुरुआत की इससे मनोहर परिकल्पना क्या ही होगी।

दूसरी ओर बात करते हैं, द्रौपदी चीरहरण की। यह कोई सामान्य घटना नही थी जिसमें सभी के सामने एक स्त्री के वस्त्र उतारे जा रहे थे। द्रौपदी सनातन धर्म की पांच सर्वश्रेष्ठ कन्याओं में से एक थी, पांचाल नरेश की पुत्री थी, हस्तिनापुर राज्य की पुत्रवधू थी और देवपुत्रों पांडवों की पत्नी थी।

वह सभा भारत के सबसे बड़े और शक्तिशाली राज्य हस्तिनापुर की राज्य सभा थी जिसमें हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र थे, भारत के सबसे शक्तिशाली योद्धा, गंगापुत्र व भगवान परशुराम के शिष्य भीष्म पितामह थे, भगवान परशुराम के ही दूसरे शिष्य गुरु द्रोणाचार्य थे, और भी अन्य महान व शक्तिशाली पुरुष वहां उपस्थित थे। उन सभी के सामने उसी राज्य की पुत्रवधू जो कि उसी परिवार का सम्मान था, उसे भरी सभा में सभी के सामने वस्त्रहीन करने की चेष्ठा की जा रही थी। बात यही समाप्त नही होती, यह कलंकित कार्य किया किसके द्वारा जा रहा था? यह कलंकित कार्य एक पोते का अपने दादा के सामने, एक पुत्र का अपने पिता के सामने, एक शिष्य का अपने गुरु के सामने, एक भाई का अपने ही भाइयों के सामने ही उनकी पत्नी व अपनी भाभी को नग्न करने का प्रयास किया जा रहा था। कलियुग के अंत की इससे भीषण परिकल्पना क्या ही होगी।

दोनों अवतारों की एक-एक घटना पर और नजर डालते हैं। श्रीराम के एक भाई थे भरत। ना ही सगे भाई थे व ना ही चचेरे, अपितु सौतेले भाई थे। श्रीराम के वनवास और अयोध्या में हुए घटनाक्रम से अनभिज्ञ थे। जब अयोध्या पहुंचे तो सब घटना का ज्ञान हुआ। उनकी माँ कैकेयी ने उनके सामने अयोध्या का विराट राज सिंहासन रख दिया। विरोध करने वाला भी कोई नही था क्योंकि श्रीराम वहां की प्रजा और सैनिकों से वचन लेकर गए थे कि भरत के राज सिंहासन में कोई आड़े नही आएगा और ना ही कोई इसका विरोध करेगा।

भरत के लिए अब मार्ग बहुत आसान था। वे आसानी से अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठ सकते थे और सत्ता का सुख भोग सकते थे लेकिन उन्होंने क्या किया यह हम सभी जानते हैं। उन्होंने उसी समय अपनी माँ कैकेयी का हमेशा के लिए त्याग कर दिया, अयोध्या का राज सिंहासन ठुकरा दिया और पैदल ही अपने भाई श्रीराम को वन में लेने दौड़ पड़े। जब वे नही लौटे तो उनकी खडाऊ लाकर राज सिंहासन पर रख दी और अयोध्या के निकट एक वन में अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे। उस कुटिया में भी अपने सोने के स्थान को एक गड्डा खोदकर नीचे की ओर बनाया ताकि उनका स्थान हमेशा अपने बड़े भाई श्रीराम से नीचा रहे।

दूसरी ओर, श्रीकृष्ण की माँ देवकी के सगे भाई कंस थे। आज ही उनकी बहन देवकी का वासुदेव जी के साथ विवाह हुआ था और कंस अपने रथ पर उन्हें ससुराल छोड़ने जा रहा था लेकिन एक आकाशवाणी ने भाई को ही अपनी बहन का कट्टर शत्रु बना दिया। वह अपनी ही सगी बहन के लिए इतना अत्याचारी बन गया कि उसे उसके पति के साथ कारावास में डलवा दिया। इतना ही नही, जब भी देवकी की कोई संतान पैदा होती तो वही कंस उस नवजात के आँखें खोलने से पहले ही उसे एक पत्थर पर पटक कर मार देता। इससे ज्यादा अत्याचार की परिकाष्ठा और क्या ही होगी।

एक ओर, कर्तव्यों के लिए सबकुछ त्यागने के बाद भी आज हम श्रीराम का चित्रण धनुष-बाण के साथ करते हैं क्योंकि उनका संदेश था कि अच्छाई को बनाए रखना हैं तो तुम्हें लड़ते रहना ही होगा तो दूसरी ओर, महाभारत जैसे भीषण युद्ध के रचयिता श्रीकृष्ण का चित्रण हम मुरलीमनोहर बांसुरी के साथ करते हैं क्योंकि उनका संदेश था कि बुराई को पराजित करना हैं तो प्रेम को अपनाना ही होगा। इसलिये हमने पहले ही कहा कि दोनों हैं एक-दूसरे से भिन्न लेकिन हैं दोनों ही आवश्यक।

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लेखक के बारें में: कृष्णा

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