सच्चा गुरु किसे कहते हैं? जाने गुरू का महत्व व भूमिका

Guru In Hindi

Guru In Hindi: आज हम आपके साथ गुरु किसे कहते हैं, जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बात करने वाले हैं भारतीय संस्कृति पहले बहुत ज्यादा उन्नत थी। यहाँ पर असंख्य गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ पर देश-विदेश से लाखों छात्र पढ़ने आया करते थे। इन्हें शिक्षा देने का काम वहां के आचार्य का हुआ करता था। गुरुकुल के सबसे बड़े आचार्य को गुरु की संज्ञा दी जाती थी।

ऐसे में यह गुरु कौन होता था और इनकी क्या भूमिका होती थी? इसके लिए आपको गुरू का महत्व (Guru Ka Mahatva) जानना होगा और उसी से ही गुरु के अर्थ का पता चल पाएगा। बहुत से लोग सच्चा गुरु किसे कहते हैं, के बारे में भी जानना चाहते हैं। ऐसे में हम आपको इस विषय के ऊपर भी इसी लेख में बताएँगे।

Guru In Hindi | गुरु किसे कहते हैं?

हम सभी ने इस मंत्र को कई बार सुना होगा और अधिकांश को तो यह मंत्र याद भी होगा क्योंकि हर विद्यालय में इसे प्रतिदिन कंठस्थ करवाया जाता था।

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।

गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

अर्थ: गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही देवों के देव भगवान शिव हैं। गुरु ही परमब्रह्म का साक्षात् रूप है, ऐसे गुरु को हम सभी प्रणाम करते हैं।

विश्व में हिंदू धर्म के अलावा जितने भी अन्य धर्म हैं, उन सभी में ईश्वर को सर्वोच्च माना गया है जबकि सनातन/ हिंदू धर्म में गुरु को ईश्वर से भी सर्वोपरी माना गया है लेकिन क्यों!! इसके पीछे कई भेद हैं जिसके लिए पहले आपको मत्स्य न्यायधर्म की परिभाषा के बारे में पढ़ना चाहिए ताकि आप गुरु के अर्थ को और बेहतर तरीके से समझ सकें।

किंतु हम इस लेख के माध्यम से भी आपको गुरु की भूमिका के बारे में विस्तार से समझाने का प्रयास करेंगे। गुरु के बारे में जानने से पहले हमे एक शिक्षक की परिभाषा, उसके कार्य व उसके प्रकारों के बारे में जानना चाहिए। तभी हम गुरु की परिभाषा को और अच्छे से समझ सकते हैं।

गुरु क्या है?

सनातन धर्म को विश्व में सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है जिसमें से कई अन्य धर्मों का उदय हुआ। सनातन धर्म में ईश्वर की परिकल्पना के साथ-साथ वेदों व उपनिषदों के माध्यम से जीवन जीने की एक उत्तम पद्धति की स्थापना की गई। जब मनुष्य आदिमानव था और वनों में रहता था तब वहां मत्स्य न्याय था। इसी मत्स्य न्याय की काट के लिए धर्म की स्थापना हुई थी।

सनातन धर्म में ज्ञान को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि मनुष्य के द्वारा धर्म के मूल्यों की स्थापना करने के लिए ज्ञान अति-आवश्यक था। ज्ञान को साधारण मनुष्यों को समझाना या यूँ कहें कि धर्म और अधर्म के बीच में भेद बताने का कार्य शिक्षक का होता था जिसे हम गुरु (Guru Kya Hai) भी कह देते हैं।

असलियत में सभी गुरुओं को हम शिक्षक की संज्ञा दे सकते हैं लेकिन सभी शिक्षकों को गुरु की नही। इसलिए अंग्रेजी भाषा के टीचर शब्द को शिक्षक या अध्यापक की संज्ञा दी जाएगी, ना कि गुरु की। गुरु संस्कृत भाषा का शब्द है जो हिंदी, अंग्रेजी या विश्व की किसी भी अन्य भाषा में गुरु ही कहा जाएगा। गुरु किसे कहा जाता है, इसे अच्छे से समझने के लिए आपको शिक्षक के पांच प्रकारों के बारे में समझना होगा।

संस्कृत में योग्यता के अनुसार शिक्षक के 5 प्रकार

हिंदू धर्म में शिक्षक को उसके गुणों के आधार पर 5 भागों में विभाजित (Guru In Hindi) किया गया है जो कि क्रमानुसार अध्यापक, उपाध्याय, आचार्य, पंडित व गुरु कहलाते हैं। आइए एक-एक करके पाँचों के बारे में जानते हैं।

#1. अध्यापक

शिक्षक में सर्वप्रथम अध्यापक आते हैं जिनका उत्तरदायित्व विद्यार्थी को शुरूआती ज्ञान उपलब्ध करवाना होता है। एक अध्यापक वह होता है जो विद्यार्थी में सीखने की इच्छा को जागृत करता है। जब एक शिष्य गुरुकुल में प्रवेश करता है तब सबसे पहले उसका परिचय अध्यापक से ही होता है। अध्यापक उसके मन के अंदर ज्ञान का प्रवाह करता है। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि किसी विषय के बारे में शुरूआती ज्ञान देने वाले को ही अध्यापक की संज्ञा दी गई है।

बिना अध्यापक के एक सुशिक्षित समाज की परिकल्पना करना असंभव है क्योंकि एक अध्यापक ही विद्यार्थी के लिए आगे के मार्ग को प्रशस्त करता है जो उसकी आगे सीखने की क्षमता को विकसित करने में सहायक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, हम छोटी कक्षा के शिक्षकों को अध्यापक की संज्ञा दे सकते हैं।

#2. उपाध्याय

इनका पद अध्यापक से ऊपर होता था जो विद्यार्थी को किसी विषय वस्तु में जानकारी उपलब्ध करवाने के साथ-साथ उसके बारे में ज्ञान भी देते थे। इन्हें आप आज के समय के अनुसार प्रधानाध्यापक या बड़ी कक्षा के अध्यापक की संज्ञा दे सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर एक अध्यापक आपको यह जानकारी देगा कि ब्रह्मांड में सूर्य व पृथ्वी विद्यमान है व पृथ्वी हमेशा सूर्य के चारों ओर निरंतर परिक्रमा करती है किन्तु उपाध्याय आपको इसके बारे में ज्ञान देगा कि आखिर यह होता कैसे है तथा वह कौन सी शक्तियां हैं जिनसे पृथ्वी व सूर्य ब्रह्मांड में स्थित हैं व घूम रहे हैं।

कहने का तात्पर्य यह हुआ कि एक अध्यापक अपने शिष्य के कौन, कब, कहां जैसे प्रश्नों के उत्तर देते हैं जबकि उपाध्याय उस शिष्य के कैसे और क्यों जैसे प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होते हैं।

#3. आचार्य

इनका स्थान उपाध्याय से ऊपर था जिन्हें वेदों व शास्त्रों का ज्ञान भी होता था। आप यहाँ पर वेदों या शास्त्रों को केवल धर्म की व्याख्या करने वाली सामान्य पुस्तकें समझने की भूल कदापि ना करें। दरअसल वेदों और शास्त्रों में जीवन की संपूर्ण व्याख्या, ग्रहों व ब्रह्मांड का विस्तृत अध्ययन, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा व गणित के सूत्र, शरीर की आंतरिक सरंचना, बीमारियाँ व औषधियां, खगोल विज्ञान इत्यादि सभी की विस्तृत जानकारी दी गई है। इनके सामने आज का विज्ञान तुच्छ मात्र है।

आचार्य वे होते थे जिन्होंने सभी वेदों और शास्त्रों का संपूर्ण अध्ययन किया हो और सभी विषयों के बारे में जानकारी रखते हो लेकिन किसी एक विशेष विषय में निपुणता प्राप्त की हो। इन्हें आप आज के समय के अनुसार महाविद्यालय/ कॉलेज के शिक्षक की उपाधि दे सकते हैं जैसे कि भौतिकी के शिक्षक या रसायन विज्ञान के शिक्षक इत्यादि। सामान्यतया गुरुकुल में विद्यार्थियों को शिक्षक के रूप में आचार्य तक की उपाधि वाले शिक्षक तक ही ज्ञान अर्जित करने का अवसर प्राप्त होता था।

गुरुकुल में आचार्य का कार्य विद्यार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ उनमे कौशलता का विकास करना होता था। साथ ही वे उसे नैतिक मूल्यों, नियमों व सिद्धांतों का ज्ञान देते थे। आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान को अपने जीवन में कैसे उपयोग में लाया जाए, इसके बारे में बताते थे।

उदाहरण के तौर पर, एक उपाध्याय अपने विद्यार्थी को पृथ्वी का सूर्य के चारों ओर घूमने व उसके रहस्यों के बारे में तो बता देते हैं किन्तु आचार्य उसे अपने दैनिक जीवन में किस प्रकार उपयोग किया जाए व किस प्रकार गति हमारे दैनिक जीवन का एक भाग है व उसका कैसे विभिन्न माध्यमों में प्रयोग किया जाए, इत्यादि के बारे में जानकारी देते थे।

#4. पंडित

पंडित का स्थान आचार्य से ऊपर होता था। आचार्य को वेदों-उपनिषदों में से किसी एक विषय के बारे में निपुणता प्राप्त होती थी जबकि पंडितों को सभी विषयों में निपुणता प्राप्त थी। जिसे वेदों और उपनिषदों का संपूर्ण गूढ़ प्राप्त हो और जिसने उसमे दक्षता सिद्ध कर दी हो, उसे ही पंडित की उपाधि दी जाती थी।

वे किसी भी विषय के बारे में उसका गहराई से विश्लेषण करके अपने विद्यार्थियों को सिखा सकते थे, नई चीज़ों की खोज कर सकते थे, सूत्र बदल सकते थे या उन्हें नया रूप दे सकते थे इत्यादि। किंतु इनके गुणों को देखते हुए इन्हें गुरुकुल से बाहर आम प्रजा के मार्गदर्शन के लिए उपलब्ध करवाया गया।

इनका मुख्य कार्य सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठान करवाना, आम प्रजा को उचित मार्ग दिखाना व यज्ञ करवाना होता था। किसी भी धार्मिक व शुभ कार्यक्रम में पंडित को बुलाना अनिवार्य होता था व बिना उनके वह कार्य पूर्ण नही माना जाता था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सभी धार्मिक कार्यक्रमों में पंडित की उपस्थिति अनिवार्य है।

पंडित को गुरुकुल से बाहर जाकर शिक्षक की भूमिका इसलिए दी गई क्योंकि एक मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम तक ही गुरुकुल में रहता है। गुरुकुल में प्राप्त की गई शिक्षा से बाद में वह भ्रमित हो सकता है, उसको मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ सकती है, इत्यादि कई कारणों से शिक्षकों के एक प्रकार पंडितों को गुरुकुल से बाहर समाज का मार्गदर्शन करने का उत्तरदायित्व दिया गया था।

#5. गुरु कौन है?

गुरु संस्कृत का एक शब्द है जो दो शब्दों के मेल से बना है जिसमे “गु” का अर्थ “अंधकार” व “रु” का अर्थ “प्रकाश” से है अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला। यहाँ अंधकार का अर्थ अज्ञानता से है जबकि प्रकाश का अर्थ ज्ञान से है। गुरुकुल में केवल एक गुरु होता था जो वहां का प्रधान होता था। गुरु का शिक्षकों में सर्वोत्तम स्थान था। इतना ही नही गुरु को ईश्वर से भी बड़ी उपाधि दी गई है। आइए गुरु के अर्थ (Guru Ka Arth) को और बेहतर तरीके से समझते हैं:

  • एक गुरु वह होता था जिसमें अध्यापक, उपाध्याय, आचार्य व पंडितों के सभी गुण विद्यमान होते थे अर्थात उन्हें सामान्य ज्ञान से लेकर उच्च शिक्षा का ज्ञान होता था।
  • एक गुरु को सभी वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण कंठस्थ होते थे। उन्हें नियम, सिद्धातों, विषयवस्तु, राजनीति, अर्थशास्त्र इत्यादि के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता था।
  • एक गुरु अपने सामने वाले मनुष्य की आँखें तक पढ़ सकता था, उसकी आत्मा का गूढ़ जान सकता था, बिना कहे अपनी बात कह सकता था, किसी की छुपी हुई विद्या/कौशल को पहचान सकता था, उस कौशल को उसकी शक्ति बना सकता था इत्यादि।
  • कहने का तात्पर्य यह हुआ कि एक गुरु अपने शिष्य या किसी मनुष्य के जीवन को एक नई दिशा तक दे सकता था।
  • उदाहरण के तौर पर गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की प्रतिभा को पहचाना व उनके जीवन को अलग दिशा दी जिससे वे सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज बने। यदि गुरु द्रोणाचार्य उन्हें शिक्षा नही देते तो शायद वे कभी भी महान योद्धा नही बन पाते।
  • गुरु अपने शिष्य का संपूर्ण जीवन बदल सकता है व उसे बुराई से अच्छाई के मार्ग पर ले जा सकता है।

इसलिए प्राचीन समय की कथाओं को हम देखेंगे तो पाएंगे कि एक गुरु जब राजभवन में आते थे तब स्वयं राजा अपने सिंहासन से उठकर उनका स्वागत करते थे और उनके चरण धोते थे। एक राज्य के लिए उसके राजगुरु सबसे श्रेष्ठ होते थे जो राज्य की राजनीति में सीधे हस्तक्षेप कर सकते थे व राजा को परामर्श या चेतावनी भी दे सकते थे।

इस तरह से अब आप गुरु कौन है या गुरु के अर्थ (Guru In Hindi) को भलीभांति समझ गए होंगे। फिर भी अब हम आपके सामने गुरु कैसा होना चाहिए, उसके बारे में बताने वाले हैं।

गुरु कैसा होना चाहिए?

वैसे तो हमने गुरु के बारे में बहुत कुछ बता दिया है लेकिन प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय में कई ढोंगी लोग स्वयं के गुरु होने का दावा करते हैं।इसके बारे में पहले से लेकर अब तक कई गुरुओं और सम्मानित व्यक्तियों ने चिंता व्यक्त की थी जिसमें से एक स्वामी विवेकानंद भी थे। इसलिए एक गुरु में मुख्य रूप से निम्नलिखित गुण होने आवश्यक हैं:

  • उसे सभी वेदों और शास्त्रों का संपूर्ण ज्ञान हो,
  • योग व आयुर्वेद में निपुण हो,
  • शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो (केवल सिखाने के उद्देश्य से),
  • ईर्ष्या, घृणा, लोभ, वासना जैसी भावनाएं ना हो,
  • आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी हो,
  • सांसारिक वस्तुओं, धन से लोभ ना हो इत्यादि।

इस तरह से एक गुरु वह होता है, जिसके अंदर ऊपर बताए गए सभी तरह के गुण पाए जाते हैं। हालाँकि सच्चे गुरु की परिभाषा इससे थोड़ी भिन्न होती है, जो हम आपको नीचे बताने जा रहे हैं।

सच्चा गुरु किसे कहते हैं?

ऊपर दिए गए सभी गुण उस गुरु में होना आवश्यक है जो गुरुकुल का संचालन कर रहा हो। सनातन धर्म में व्यक्ति विशेष के अनुसार भी गुरु की संज्ञा दी गई है। कहने का अर्थ यह हुआ कि एक व्यक्ति अपनी आत्मिक शक्तिओं के दम पर किसी दूसरे के जीवन को इतना ज्यादा प्रभावित कर दे कि उस दूसरे व्यक्ति के जीवन को एक नई दिशा मिल जाए तो वह व्यक्ति उस पहले व्यक्ति को अपना गुरु बना सकता है। उसे वह अपने सच्चे गुरु की संज्ञा भी दे सकता है।

यदि आप इसे अभी भी नहीं समझ पाए तो आज हम आपको इतिहास के कुछ सर्वश्रेष्ठ उदाहरण से समझाने का प्रयास करेंगे। आइए जाने सच्चे गुरु-शिष्य उदाहरण (Guru In Hindi)

  • हनुमान की गुरु माता सीता

रामायण में हनुमान ने श्रीराम को अपना ईश्वर माना था और वे सभी के ईश्वर थे भी किंतु बहुत कम लोग जानते होंगे कि हनुमान ने माता सीता को अपना गुरु माना था। हनुमान चालीसा की शुरुआत श्री शब्द से होती है जिसका अर्थ माता सीता ही है। हनुमान का जन्म ईश्वर के रूप श्रीराम की सहायता करने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन वह माता सीता ही थी जिनके कारण उन्हें श्रीराम मिले। तभी कहते हैं कि गुरु वह है जो हमे ईश्वर से भी मिला दे।

  • अर्जुन के गुरु श्रीकृष्ण

महाभारत के युद्ध की शुरुआत में ही जब धनुर्धारी अर्जुन अपने कर्तव्य से डगमगा गया था और युद्ध ना करने का कहने लगा था तब श्रीकृष्ण ने ईश्वर की भांति उसे बहुत समझाया। किंतु जब ईश्वर की भूमिका काम नही आई तब उन्होंने गुरु की भूमिका निभाई। तभी उनके मुख से श्रीमद्भागवत गीता का पाठ पूरी दुनिया ने सुना था। इसे सुनकर ही अर्जुन पुनः युद्ध करने को तैयार हो पाया था।

दोनों ही घटनाओं को देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि माता सीता या श्रीकृष्ण किसी गुरुकुल के संचालक नही थे लेकिन हनुमान व अर्जुन के जीवन को एक नई दिशा देने के लिए उनकी पहचान उन व्यक्ति विशेष के गुरु के रूप में हुई, अन्य के लिए नही। अन्य के लिए माता सीता माँ लक्ष्मी का एक रूप व श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के रूप में ही रहेंगे।

Guru Ka Mahatva | गुरू का महत्व

एक सुशिक्षित समाज के निर्माण के लिए हमे गुरुकुलों में पढ़ाया जाता था जिसमे माता-पिता अपनी संतान को एक निश्चित आयु के बाद भेजा करते थे। गुरुकुल भेजने से पहले एक बच्चे का उसके घर पर ही विद्यारम्भ संस्कार किया जाता था जिसमे उसे अक्षरों, शब्दों इत्यादि का शुरूआती ज्ञान दिया जाता था। इससे वह लिखना व पढ़ना सीख पाता था।

उसके बाद उसका उपनयन संस्कार करके गुरुकुल भेज दिया जाता था जो विद्यार्थी या शिष्य कहलाता था। तब उस व्यक्ति के चरित्र निर्माण का उत्तरदायित्व एक शिक्षक/ गुरु के कंधों पर ही होता था। अब वह ब्रह्मचर्य तक या गुरु की आज्ञा तक उस गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करता था व जीवन के मूल्यों को समझता था।

  • गुरु के द्वारा ही अपने शिष्यों को सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों के बारे में बताया जाता था।
  • समाज में रहने के लिए क्या आवश्यक है और क्या नही, समाज के नियम, क्या सही है व क्या गलत, क्या कर्म करने चाहिए व क्या नही, हमारे अधिकार व उत्तरदायित्व क्या हैं, इत्यादि सभी बातें एक शिष्य अपने गुरु से ही सीखता था।
  • कुल मिलाकर कहें तो समाज में धर्म की स्थापना करने, उसे मनुष्यों के लिए रहने लायक बनाने, सभी को शिक्षित करने, अराजकता को रोकने, सभी का मार्गदर्शन करने में गुरुओं की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।
  • वह एक मनुष्य को समाज में रहने के लिए तैयार करता था। इसलिए गुरुओं के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए ही गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।

जब एक शिष्य की शिक्षा पूरी हो जाती थी तो उसका गुरु के द्वारा समावर्तन संस्कार करके पुनः घर भेज दिया जाता था। समावर्तन संस्कार वह होता था जब गुरु उसे गुरुकुल से बाहर निकल कर नए परिदृश्य में रहने के लिए तैयार करता था। इससे हम गुरु के महत्व (Guru Ka Mahatva) को अच्छे से समझ पाते हैं।

मानव जीवन में गुरु का स्थान

जैसा कि हमने लेख की शुरुआत में ही बताया कि सनातन धर्म में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया गया है लेकिन आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई मनुष्य जिसने गुरु की उपाधि प्राप्त कर ली हो, उसका स्थान परमपिता ईश्वर से भी ऊँचा हो गया!!

इसका उत्तर बहुत सरल व स्पष्ट है। दरअसल गुरु के बिना ईश्वर की परिकल्पना ही नही की जा सकती। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि गुरु के बिना ज्ञान नही और ज्ञान के बिना ईश्वर नही। यदि मनुष्य अज्ञानी होगा तो वह अधर्मी कहलाता है और अधर्मी व्यक्ति के लिए ईश्वर की कोई महत्ता नही होती।

इसलिए गुरु से ही हमे ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है या यूँ कहें कि वह गुरु ही है जो हमे ईश्वर से मिला सकता है। बिना गुरु के हम या ईश्वर कुछ भी नही। हालाँकि ईश्वर सर्वोत्तम है और वे गुरु के लिए भी ईश्वर की ही भूमिका में रहेंगे लेकिन यहाँ गुरु की महत्ता को देखते हुए उन्हें मानव सभ्यता के लिए ईश्वर से ऊपर स्थान दिया गया है।

निष्कर्ष

इस तरह से आज आपने जान लिया है कि गुरु किसे कहते हैं (Guru In Hindi) और उनका हमारे जीवन में क्या महत्व होता है। यदि मनुष्य को अपने जीवन में सफल होना है या ईश्वर के निकट जाना है या मोक्ष प्राप्त करना है तो उसके लिए गुरु की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। आज के समय में अच्छे गुरु मिलना बहुत ही कठिन है लेकिन जिसे भी यह मिल जाते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है।

सच्चे गुरु से संबंधित प्रश्नोत्तर

प्रश्न: गुरु के प्रकार या गुरु कितने होते हैं?

उत्तर: जैसा कि हमने आपको पहले ही बताया कि गुरु के कोई प्रकार नही होते क्योंकि एक गुरु उसे ही कहा जाता है जो सर्वगुण संपन्न हो। हालाँकि शिक्षक के प्रकार होते हैं जिसमें गुरु उसका एक प्रकार है लेकिन गुरु के कोई प्रकार नही होते।

प्रश्न: गुरु की उत्पत्ति कैसे हुई?

उत्तर: गुरु की उत्पत्ति सनातन धर्म की शुरुआत से ही हो गई थी। जब विश्व में मत्स्य न्याय की काट के लिए धर्म की स्थापना की गई थी तब उसके प्रचार-प्रसार व उसके बने रहने के लिए गुरु की आवश्यकता थी। इसलिए इसके बाद से गुरु शब्द की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न: क्या स्त्री गुरु हो सकती थी?

उत्तर: गुरुकुल के संचालक के रूप में एक स्त्री गुरु नही हो सकती थी। हालाँकि गुरु की पत्नी को गुरु माता की उपाधिदी जाती थी। इसके साथ ही गुरु के पुत्र को गुरु पुत्र व गुरु की पुत्री को गुरु पुत्री की उपाधि गुरुकुल में प्राप्त होती थी।

प्रश्न: क्या गुरुकुल में जाति विशेष के छात्रों को ही पढ़ने का अधिकार था?

उत्तर: गुरुकुल में सभी जातियों के बच्चों को पढ़ने की अनुमति थी लेकिन अपने छात्रों को चुनने का अधिकार उस गुरुकुल के गुरु के पास होता था। गुरुकुल का गुरु छात्र की परीक्षा लेता था तथा उसके पश्चात ही वह अपने शिष्यों को चुनता था। इसी प्रकार एक शिष्य भी अपने गुरु की प्रतिभा को परख सकता था।

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लेखक के बारें में: कृष्णा

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