भगवान विष्णु ने अपने सातवें अवतार में भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया था जिसका मुख्य उद्देश्य रावण का वध करके धरती को पापमुक्त करना था (Bhagwan Ram History In Hindi) व धर्म की पुनः स्थापना करनी थी। किंतु श्रीराम के रूप में उन्होंने एक ऐसा आदर्श स्थापित किया कि उनके जीवन की हरेक घटना हमारे लिए प्रेरणा बन गयी। यदि हम उनके जीवन में घटित किसी भी घटना का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि (Essay On Shri Ram In Hindi) हर घटना हमें कुछ न कुछ शिक्षा देकर जाती हैं। इसलिये आज हम आपको श्रीराम के जन्म से लेकर उनके समाधि लेने तक की हर घटना व उससे जुड़ी शिक्षा का वर्णन करेंगे।
अयोध्या के नरेश दशरथ की तीन रानियाँ थी जिनके नाम कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा था। वही दूसरी ओर लंका में अधर्मी राजा रावण का राज्य था जो राक्षसों का सम्राट था (Shri Ram Par Nibandh)। उसके राक्षस केवल लंका तक ही सिमित नही थे बल्कि वे समुंद्र के इस पार दंडकारण्य के वनों में भी फैले हुए थे जिसके कारण ऋषि-मुनियों को भगवान की स्तुति करने व धार्मिक कार्यों को करने में समस्या हो रही थी।
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आकाश में स्थित देवता भी रावण के बढ़ते प्रभाव के कारण व्यथित थे। तब सभी भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने गए। भगवान विष्णु ने कहा कि (Shri Ram Ka Charitra Chitran In Hindi) अब उनका सातवाँ अवतार लेने का समय आ गया हैं। इसके बाद उन्होंने दशरथ पुत्र (Sri Ram Ke Pita Ka Naam) के रूप में महारानी कौशल्या के गर्भ से जन्म लिया जिसका नाम राम रखा गया।
श्रीराम के साथ उनके तीन सौतेले भाई भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न (Shri Ram Ke Kitne Bhai The) का भी जन्म हुआ। अयोध्या की प्रजा (Shri Ram Ka Janm Kahan Hua) अपने भावी राजा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी तथा चारो ओर उत्सव की तैयारी होने लगी।
जन्म के कुछ वर्षों तक श्रीराम अपने भाइयों के साथ अयोध्या के राजमहल में रहे। जब उनकी आयु शिक्षा ग्रहण करने की हुई तब उनका उपनयन संस्कार करके गुरुकुल भेज दिया गया। श्रीराम (Ramji Ki Kahani) ने अयोध्या के राजकुमार तथा स्वयं नारायण अवतार होते हुए भी विधिवत रूप से गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण की।
उनके गुरु अयोध्या के राजगुरु महर्षि वशिष्ठ (Ram Ke Kul Guru Kaun The) थे। वे गुरुकुल में बाकि आम शिष्यों की भांति शिक्षा ग्रहण करते, भिक्षा मांगते, भूमि पर सोते, आश्रम की सफाई करते व गुरु की सेवा करते (Bhagwan Shri Ram Ki Kahani In Hindi)। जब उनकी शिक्षा पूर्ण हो गयी तब उनका पुनः अयोध्या आगमन हुआ।
गुरुकुल (Guru Of Lord Rama In Hindi) में रहकर उन्होंने अपने तीनो छोटे भाइयों को कभी माता-पिता की याद नही आने दी। उन्होंने स्वयं से पहले हमेशा अपने भाइयों का सोचा। उनके तीनो भाई भी अपने बड़े भाई की बहुत सेवा करते।
जब श्रीराम विद्या ग्रहण करके अयोध्या वापस आ गए तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अयोध्या पधारे। उन्होंने दशरथ को बताया कि उनके आश्रम पर आए दिन राक्षसों का आक्रमण होता रहता हैं (Ramayan Katha In Hindi) जिससे उन्हें यज्ञ आदि करने में बाधा हो रही हैं। अतः वे श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दे। तब दशरथ ने कुछ आनाकानी करने के बाद श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दे दी।
चूँकि लक्ष्मण हमेशा अपने भाई श्रीराम के साथ ही रहते थे (Sampurna Ramayan Katha In Hindi) इसलिये वे भी उनके साथ गए। वहां जाकर श्रीराम ने अपने गुरु विश्वामित्र के आदेश पर ताड़का व सुबाहु का वध कर डाला व मारीच को दूर दक्षिण किनारे समुंद्र में फेंक दिया। इस प्रकार उन्होने आश्रम पर आए संकट को दूर किया।
इसमें श्रीराम ने यह संदेश दिया कि शास्त्रों में किसी महिला पर अस्त्र उठाना या उसका वध करना धर्म विरूद्ध बताया गया हैं (Ramayana Summary In Hindi) लेकिन यदि गुरु की आज्ञा की अवहेलना की जाए तो वह उससे भी बड़ा अधर्म रुपी कार्य हैं। इसलिये इस धर्मसंकट में उन्होंने उस धर्म को चुना जो श्रेष्ठ था व गुरु की आज्ञा का आँख बंद कर पालन किया।
जब श्रीराम अपने गुरु के साथ विचरण कर रहे थे तब बीच में उन्हें एक पत्थर की शिला दिखाई दी। विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि यह शिला पहले अहिल्या माता थी जो गौतम ऋषि के श्राप से पत्थर की शिला बन गयी। तब से यह प्रभु चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा कर रही हैं ताकि इनका फिर से उद्धार हो सके।
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यह सुनते ही प्रभु श्रीराम ने अपने चरणों के स्पर्श से माता अहिल्या का उद्धार (Ahilya Uddhar Ramayan Ki Katha) किया व उन्हें मुक्ति दी।
इसके बाद ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उन्हें व लक्ष्मण को लेकर मिथिला राज्य गए जहाँ माता सीता का स्वयंवर था। उस स्वयंवर में महाराज जनक ने एक प्रतियोगिता रखी थी कि जो भी वहां रखे शिव धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा (Sita Swayamvar Story In Hindi) उसका विवाह उनकी सबसे बड़ी पुत्री सीता से हो जाएगा।
जब श्रीराम ने माता सीता को बगीचे में फूल चुनते हुए देखा था तो उस समय मृत्यु लोक में दोनों का प्रथम मिलना हुआ था। दोनों ही जानते थे कि वे भगवान विष्णु व माता लक्ष्मी का अवतार हैं लेकिन उन्हें मनुष्य रूप में अपना धर्म निभाना था। प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ व एक-एक करके सभी राजाओं ने उस शिव धनुष को उठाने का प्रयास किया।
वह शिव धनुष इतना भारी था कि इसे पांच हज़ार लोग सभा में उठाकर लाए थे। सभा में कोई भी ऐसा बाहुबली नही था जो उस धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा सके। अंत में विश्वामित्र जी ने श्रीराम को वह धनुष उठाने की आज्ञा दी। गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम ने शिव धनुष (Ramayan Me Shiv Dhanush Kisne Toda) को प्रणाम किया व एक ही बारी में धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे जिससे शिव धनुष टूट गया।
यह दृश्य देखकर वहां उपस्थित सभी अतिथिगण आश्चर्यचकित थे। इसके पश्चात श्रीराम का विवाह माता सीता से हो गया। इससे हमे यह शिक्षा मिलती हैं कि एक गुरु अपने शिष्य के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय भी ले सकता हैं। जब माता-पिता अपने बच्चे का हाथ एक गुरु को सौंप देते हैं तो वही गुरु उसके माता-पिता बन जाते हैं। उनकी आज्ञा अर्थात अपने माता-पिता की आज्ञा समझी जाती हैं जिसका पालन करना हर मनुष्य का परम कर्तव्य हो जाता हैं।
उस समय भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम भी इस धरती पर उपस्थित थे तथा शिव साधना में लीन थे। जब उन्होंने शिव धनुष के टूटने की आवाज़ सुनी तो वे अत्यंत क्रोध में उस सभा में पहुंचे। उन्हें इतने क्रोध में देखकर सभी सभासद डर गए। वे शिव धनुष तोड़ने वाले को सामने आकर उनसे युद्ध करने की चुनौती देने लगे।
परशुराम को इस तरह क्रोधित व श्रीराम का अपमान देखकर लक्ष्मण अपना क्रोध रोक नही पाए (Parshuram Ram Ka Milan) व उनकी परशुराम से बहस होने लगी। लेकिन इसी बीच श्रीराम ने ना अपना संयम खोया व ना ही कोई कटु वचन कहे। वे लगातार परशुराम व लक्ष्मण को समझाते रहे व परशुराम जी के द्वारा कठोर वचन सुनने के बाद भी उनसे क्षमा मांगी।
अंत में परशुराम का क्रोध शांत करने के लिए उन्होंने उन्हें अपना विष्णु अवतार होने का दिखलाया। जब परशुराम को पता चला कि भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार जन्म ले चुका हैं तथा वे स्वयं भगवान श्रीराम हैं तो वे वहां से चले गए।
उस समय एक पुरुष के द्वारा कई पत्नियाँ रखने का चलन आम था। मुख्यतया एक राजा की कई पत्नियाँ हुआ करती थी। स्वयं श्रीराम के पिता दशरथ की तीन पत्नियाँ थी किंतु श्रीराम ने माता सीता को वचन दिया कि वे आजीवन किसी परायी स्त्री के बारे में सोचेंगे तक नहीं। जीवनभर केवल और केवल माता सीता ही उनकी धर्मपत्नी रहेंगी व कभी कोई दूसरी स्त्री को यह अधिकार प्राप्त नही होगा। इस प्रकार उन्होंने एक पति-पत्नी के आदर्शों को स्थापित किया।
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अपने विवाह के कुछ समय पश्चात उन्हें अपने पिता दशरथ की ओर से राज्यसभा में बुलाया गया व उनके राज्याभिषेक करने का निर्णय सुनाया गया। शुरू में तो श्रीराम असहज हुए लेकिन इसे अपने पिता की आज्ञा मानकर उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद पूरी अयोध्या नगरी में इसकी घोषणा कर दी गयी व उत्सव की तैयारियां होने लगी।
अगली सुबह जब उनके पिता राज्यसभा में नही आए तब उन्हें दशरथ का अपनी सौतेली माँ कैकेयी (Shri Ram Ko Vanvas Kisne Bheja) के कक्ष में होने का पता चला। वहां जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पुराने दो वचन मांग लिए हैं जिनमे प्रथम वचन राम के छोटे भाई व कैकेयी पुत्र भरत का राज्याभिषेक था व दूसरा वचन श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास। उनके पिता यह वचन निभा पाने में स्वयं को असहाय महसूस कर रहे थे इसलिये वे अपने कक्ष में बैठकर विलाप कर रहे थे।
जब वे कक्ष में पहुचे तो अपने पिता को दुखी पाया। उनके पिता ने श्रीराम से कहा कि वे विद्रोह करके उनसे यह राज्य छीन ले (Ram Ko 14 Varsh Ka Vanvas Kyu Mila) तथा स्वयं राजा बन जाए। श्रीराम ने इसे सिरे से नकार दिया तथा अपने पिता के दिए गए वचनों को निभाने के लिए सहजता से वनवास स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी माता कैकेयी से कहा कि यदि उन्हें भरत के लिए राज्य ही चाहिए था तो वे सीधे उन्हें ही कह देती, वे प्रसन्नता से वह राज्य भरत को दे देते।
श्रीराम ने अपने पिता का वचन निभाने के लिए वनवास जाने का निर्णय ले लिया। उनके साथ उनकी पत्नी सीता ने अपना पति धर्म निभाते हुए वनवास में जाने का निर्णय लिया। साथ ही हमेशा उनके साथ रहने वाला छोटा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ चला।
उस समय उनके दो भाई भरत व शत्रुघ्न अपने नाना के राज्य कैकेय प्रदेश में थे, इसलिये उन्हें किसी घटना का ज्ञान नही था। जब श्रीराम वनवास जाने लगे तो अयोध्या की प्रजा विद्रोह पर उतर आयी। उन्होंने भरत को अपना राजा मानने से साफ मना कर दिया। यह देखकर श्रीराम ने अयोध्या की प्रजा को समझाया तथा अपने राजा की आज्ञा का पालन करने को कहा।
श्रीराम ने अपने वनवास में जाने के पश्चात (Rama Ka Charitra Chitran In Hindi) भरत को राज्य चलाने में सहयोग देने को कहा। इससे श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि चाहे उनके साथ कैसा भी अन्याय हुआ हो लेकिन उन्होंने अपनी सौतेली माँ कैकेयी व भरत के प्रति कभी कोई दुर्भावना नही रखी।
अयोध्या की प्रजा राजा दशरथ को भी भला-बुरा कह रही थी। साथ ही लक्ष्मण भी दशरथ व कैकेयी को बुरा समझ रहे थे लेकिन श्रीराम ने सभी से दोनों का सम्मान बनाए रखने को कहा। उन्होने लक्ष्मण को भी माता कैकेयी का अनादर ना करने को कहा।
श्रीराम ने अयोध्या की प्रजा को बहुत समझाया लेकिन वह उनसे इतना प्रेम करती थी कि उनके साथ चौदह वर्ष के वनवास पर जाने को तैयार थी। श्रीराम के बार-बार आग्रह करने के पश्चात भी अयोध्या की प्रजा पैदल उनके रथ के पीछे चली जा रही थी। इससे श्रीराम को अयोध्या में राजनीतिक संकट पैदा होता दिखाई दिया।
तब श्रीराम ने अयोध्या के निकट तमसा नदी (Shri Ram Vanvas Route In Hindi) के पास अपना रथ रुकवा दिया व रात्रि वहां विश्राम करने को कहा। अयोध्या की प्रजा भी श्रीराम के साथ वहां रुक गयी। जब सभी सो गए तब प्रातःकाल श्रीराम जल्दी उठकर अपनी पत्नी सीता व लक्ष्मण के साथ निकल गए। बाद में जब अयोध्या की प्रजा उठी तब उन्होंने पाया कि श्रीराम अपना कर्तव्य निभाने के लिए अकेले निकल चुके हैं तो वे सभी निराश होकर वापस अयोध्या लौट गए।
इसके बाद श्रीराम आगे श्रृंगवेरपुर नगरी पहुंचे जो कि एक आदिवासी स्थल था। वहां के राजा निषादराज गुह थे जो आदिवासी समुदाय से थे। गुरुकुल में दोनों एक साथ ही पढ़े थे इसलिये दोनों के बीच मित्रता हो गयी थी। जब निषादराज को श्रीराम के अपनी नगरी के पास वन में आने का पता चला तो (Nishad Raj Role In Ramayana) वे पूरी प्रजा को लेकर वहां पहुंचे व उन्हें अपनी नगरी में रहकर विश्राम करने का कहा। उन्होंने तो श्रीराम को चौदह वर्ष तक अपनी नगरी का राजा बनकर राज करने तक का कह दिया था।
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श्रीराम ने उनका राज्य स्वीकारना तो दूर नगर में जाने से भी मना कर दिया। अपने पिता के वचन के अनुसार उन्हें चौदह वर्ष केवल वन में ही रहना था तथा इस दौरान उनका किसी भी नगर में प्रवेश करना निषिद्ध था। इसलिये उन्होंने निषादराज गुह का आमंत्रण विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।
तब श्रीराम के लिए वही वन में विश्राम करने की व्यवस्था की गयी। श्रीराम अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ भूमि पर ही सोए। यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह हैं कि लक्ष्मण अपने भाई श्रीराम की सेवा में इतने लीन थे कि वे रात्रि में सोते तक नही थे। उन्होंने दिन में श्रीराम व माता सीता की सेवा करने व रात्रि में उनकी सुरक्षा के लिए पहरा देने का निर्णय लिया था। इसलिये लक्ष्मण चौदह वर्ष तक सोये तक नही थे।
इसके बाद उन्होंने अपने साथ आए अयोध्या के मंत्री व राजा दशरथ के मित्र सुमंत को रथ सहित वापस लौट जाने को कहा। वनवास का अर्थ ही होता हैं सभी राजसी वस्तुओं का त्याग कर एक वनवासी की भांति अपना जीवनयापन करना। उस समय केवल अस्त्र-शस्त्रों को ही अपने साथ रखा जा सकता था ताकि स्वयं की रक्षा की जा सके। इसके बाद भगवान श्रीराम एक केवट की सहायता से यमुना नदी को पार कर आगे बढ़ गए।
जो यात्रियों को अपनी नाव में नदी पार करवाता हैं उसे केवट कहा जाता हैं। श्रीराम को भी नदी पार करके उस किनारे तक पहुंचना था किंतु केवट जानता था कि वे नारायण अवतार हैं। इसलिये उसने श्रीराम के सामने अहिल्या का प्रसंग दोहराया (Ram Kewat Milan) व कहा कि कही उनके पाँव पड़ते ही उनकी नाव भी एक स्त्री में बदल गयी तो उनकी आय का साधन चला जायेगा।
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इसलिये उसने श्रीराम को अपनी नाव में बिठाने से पहले उनके पाँव धोने की शर्त रखी। श्रीराम उसके भक्तिभाव को समझ गए व उसे यह आज्ञा दे दी। तब केवट ने पूरे भक्तिभाव से श्रीराम की चरण वंदना की व फिर उन्हें अपनी नाव में बिठाकर नदी पार करवा दी।
यमुना पार करके श्रीराम माता सीता व लक्ष्मण के साथ चित्रकूट (Chitrakoot Ramayan In Hindi) के वनों में अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे। कुछ दिन ही हुए होंगे कि उन्होंने देखा भरत समेत अयोध्या का पूरा राज परिवार, राजगुरु, अयोध्या की प्रजा व सैनिक वहां आ गए हैं। भरत के द्वारा उन्हें अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला। यह सुनकर श्रीराम व लक्ष्मण दोनों अधीर हो गए व अपने पिता को जलांजलि दी।
इसके बाद भरत ने श्रीराम को ही अयोध्या का राजा माना व पुनः अयोध्या चलने की विनती की। कैकेयी ने भी अपने दिए वचन वापस लेकर श्रीराम को वापस चलने को कहा लेकिन श्रीराम ने चलने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि केवल वचन (Shri Ram Ka Anmol Vachan) देने वाला ही उसे वापस ले सकता हैं। श्रीराम को वन जाने की आज्ञा महाराज दशरथ ने दी थी इसलिये केवल वही यह वचन उनसे वापस ले सकते हैं। अतः वे अब जीवित नही हैं तो श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त करने के पश्चात ही वापस आ सकते हैं।
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इस प्रसंग से श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात भी उनके वचन को झूठा नही होने दिया तथा पूरी श्रद्धा के साथ उसका पालन किया किंतु भरत स्वयं को अयोध्या का राजा मानने को तैयार नही थे। चूँकि उनके पिता के वचन के अनुसार यह राज्य भरत को मिल चुका था तथा अब भरत अपनी इच्छा से यह राज्य श्रीराम को लौटा देना चाहते थे, इसलिये श्रीराम ने इसे स्वीकार कर लिया।
तब श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के अंतराल में भरत को अयोध्या का राजकाज सँभालने का आदेश दिया। अपने भाई श्रीराम की आज्ञा पाकर भरत श्रीराम की खडाऊ (Shri Ram Ki Khadau) अपने सिर पर रखकर अयोध्या चले गए व राजसिंहासन पर उनकी खडाऊ रख दी। इसके साथ वे श्रीराम की भांति अयोध्या के पास नंदीग्राम के वनों में रहने लगे तथा वहां से ही राजकाज के कार्य सँभालने लगे।
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भरत के जाने के कुछ दिनों के पश्चात श्रीराम ने वह स्थल छोड़कर आगे दंडकारण्य के वनों में जाने का निर्णय किया। चूँकि अयोध्या की प्रजा को श्रीराम का पता चल चुका था (Shri Ram Vanvas Me Kaha Kaha Gaye The) इसलिये कोई ना कोई बार-बार वहां उनके दर्शन करने आता व इससे ऋषि-मुनियों की साधना में बाधा उत्पन्न होती। इसलिये श्रीराम वहां से आगे निकल गए।
आगे के दस से ज्यादा वर्ष उन्होंने दंडकारण्य के वनों में विभिन्न ऋषि-मुनियों से मिलने, उनसे शिक्षा प्राप्त करने, उनका आतिथ्य-सत्कार करने में बिताए। इसके साथ ही रावण के जो दुष्ट राक्षस उन वनों में ऋषि-मुनियों को परेशान करते थे, श्रीराम एक-एक करके उनका वध भी करते चले गए।
अंत में उन्होंने अपना डेरा पंचवटी (Panchvati Ramayan In Hindi) के वनों में डाला। यह उनके वनवास का आखिरी वर्ष था। पंचवटी के वनों के पास ही उनकी मित्रता जटायु (Jatayu In Ramayan In Hindi) से हुई जो उनकी कुटिया की सुरक्षा में तैनात थे।
एक दिन श्रीराम अपनी कुटिया में बैठे थे तब रावण की बहन सूर्पनखा वहां विचरण करती हुई आयी। श्रीराम को देखते ही वह उन पर मोहित हो गयी व उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। श्रीराम ने नम्रता से अपने एक पत्नी धर्म को बताते हुए उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। फिर उसने लक्ष्मण के सामने भी वही प्रस्ताव रखा जिसका लक्ष्मण ने उपहास किया।
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अपना उपहास देखकर वह माता सीता को खाने के लिए दौड़ी तो लक्ष्मण ने अपनी तलवार से उनकी नाक व एक कान काट दिया (Surpanakha Ki Naak Kati)। वह रोती हुई अपने भाई खर-दूषण के पास गयी। खर-दूषण रावण के भाई थे जिनकी छावनी उसी राज्य में थी।
तब खर-दूषण अपने चौदह हज़ार सैनिकों के साथ श्रीराम से युद्ध करने पहुंचे तो श्रीराम ने एक ही बाण से सभी को परास्त कर दिया व खर-दूषण का वध (Khar Dushan Vadh Ramayan) कर दिया।
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फिर एक दिन माता सीता को अपनी कुटिया के पास एक स्वर्ण मृग घूमते हुए दिखाई दिया तो माता सीता ने उसे अपने लिए लाने का आग्रह किया। यह सुनकर भगवान राम उस मृग को लेने निकल पड़े लेकिन यह रावण की एक चाल थी। वह मृग ना होकर रावण का मायावी मामा मारीच (Marich Kon Tha) था।
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वह मृग श्रीराम को कुटिया से बहुत दूर ले गया तथा जब श्रीराम को उसके मायावी होने का अहसास हुआ तो उन्होंने उस पर तीर चला दिया। तीर के लगते ही वह मृग राम की आवाज़ में लक्ष्मण-लक्ष्मण चिल्लाने लगा। यह देखकर माता सीता ने लक्ष्मण को श्रीराम की सहायता करने भेजा। लक्ष्मण माता सीता की रक्षा के लिए वहां लक्ष्मण रेखा खींचकर चले गए।
लक्ष्मण के जाते ही पीछे से रावण ने माता सीता का अपहरण कर लिया व अपने पुष्पक विमान में बिठाकर लंका ले गया। जब श्रीराम व लक्ष्मण वापस आए (Ramayan Sita Haran Ke Bad) तो माता सीता को वहां ना पाकर व्याकुल हो उठे। दोनों भाई चारो दिशाओं में सीता को खोजने लगे तो आगे चलकर उन्हें मरणासन्न स्थिति में जटायु दिखाई पड़े।
जटायु ने उन्हें बताया कि लंका का राजा रावण माता सीता का अपहरण करके दक्षिण दिशा में ले गया हैं। यह कहकर जटायु ने प्राण त्याग दिए। इसके बाद उनके अंतिम संस्कार (Jatayu Ka Antim Sanskar) का उत्तरदायित्व श्रीराम ने स्वयं उठाया तथा एक पुत्र की भांति सभी कर्तव्य निभाए।
इसके बाद श्रीराम माता सीता को ढूंढते हुए शबरी की कुटिया तक पहुंचे। उस स्थल पर कई धनवान व सिद्धि प्राप्त लोगो की कुटिया थी लेकिन श्रीराम अपनी भक्त शबरी की कुटिया में ही गए। शबरी कई वर्षों से श्रीराम की प्रतीक्षा कर रही थी व प्रतिदिन उनके लिए अपनी कुटिया को पुष्पों से सजाती थी। वह श्रीराम के भोजन के लिए प्रतिदिन बेर तोड़ती और उन्हें चखकर देखती कि कही बेर खट्टे तो नही।
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जब श्रीराम शबरी की कुटिया में पहुंचे तो उसने उनका आतिथ्य-सत्कार किया। इसके बाद जब उसने अपने झूठे बेर (Shabri Ke Jhuthe Ber) श्रीराम को खाने को दिए तो लक्ष्मण को घृणा हुई लेकिन श्रीराम ने हँसते-हँसते हुए वह बेर खा लिए। इससे श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि भगवान को यदि सच्चे मन से अनजाने में झूठा भोग भी लगा दिया जाए तो भी भगवान उसे ग्रहण कर लेते है।
शबरी से सुग्रीव का पता पाकर वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे जहाँ उनकी भेंट अपने भक्त हनुमान से हुई। हनुमान के द्वारा उनकी भेंट सुग्रीव व उनके मंत्री जामवंत से हुई जो अपने बड़े भाई बालि के द्वारा किष्किन्धा राज्य से निष्कासित था। श्रीराम ने सुग्रीव से मित्रता की व दोनों ने एक-दूसरे को वचन दिया (Ramayan Mein Ram Aur Sugriv Ki Mitrata Ka Sachitra Varnan Kijiye) कि श्रीराम सुग्रीव को उनका खोया हुआ राज्य दिलवाएंगे तो सुग्रीव माता सीता को खोजने में सहायता करेंगे।
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इसके बाद श्रीराम ने किष्किन्धा नरेश व सुग्रीव के बड़े भाई बालि का एक वृक्ष के पीछे छुपकर वध (Ram Sugreev Mitrata Bali Vadh) कर डाला। बालि का वध छुपकर करना इसलिये आवश्यक था क्योंकि उसे यह शक्ति प्राप्त थी कि जो भी उससे सामने से युद्ध करेगा तो उसकी आधी शक्ति बालि में आ जाएगी।
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बालि का वध (Bali Vadh Ki Katha) करने के बाद श्रीराम ने उसे बताया कि उसने अपने भाई पर विश्वास न करके उसे उसके ही राज्य से निकाल दिया। सबसे बड़ा पाप बालि ने यह किया था कि उसने अपने भाई की पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी बनाकर रख लिया था।
श्रीराम के धैर्य का उदाहरण आप इसी से ले सकते हैं कि सुग्रीव को उसका राज सिंहासन वापस दिलवा देने के बाद भी उन्होंने तुरंत माता सीता की खोज करने से मना कर दिया। उस समय वर्षा ऋतु की शुरुआत हो चुकी थी इसलिये ऐसे समय में माता सीता को खोजना असंभव था। इसलिये उन्होंने सुग्रीव को चार मास के पश्चात माता सीता को खोजने को कहा तथा तब तक सुग्रीव को अपना राज्य व्यवस्थित करने का आदेश दिया।
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चार मास के पश्चात वानर सेना को चारो दिशाओं में माता सीता की खोज के लिए भेजा गया। कुछ दिनों के पश्चात दक्षिण दिशा में गए वानर दल में से हनुमान (Mata Sita Ki Khoj Kisne Ki Thi) ने आकर माता सीता का पता बताया। माता सीता को रावण ने अपनी ही नगरी लंका में अशोक वाटिका में रखा था। यह सुनते ही श्रीराम ने वानर सेना को लंका पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया।
संपूर्ण वानर सेना श्रीराम के नेतृत्व में समुंद्र तट तक पहुँच तो गयी लेकिन उसे पार कैसे किया जा सकता था, यह मुश्किल आ खड़ी हुई। इसके लिए श्रीराम ने समुंद्र देव से प्रार्थना की लेकिन उनके ना मानने पर उन्होंने ब्रह्मास्त्र का अनुसंधान कर लिया। तब समुंद्र देव ने प्रकट होकर उनकी सेना में से नल-नीर (Nal Neel Ki Katha) नामक दो वानरो को मिले श्राप की सहायता से समुंद्र में सेतु बनाने को कहा।
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नल-नीर को श्राप था कि उनके द्वारा समुंद्र में फेंकी गयी कोई भी वस्तु डूबेगी नही। तब केवल पांच दिनों में श्रीराम की सेना के द्वारा समुंद्र पर सौ योजन लंबे (Ram Setu Ki Lambai) सेतु का निर्माण कर दिया गया जो भारत के दक्षिणी छोर को लंका से जोड़ता था।
जब समुंद्र पर सेतु निर्माण का कार्य चल रहा था तब आकाश मार्ग से रावण का छोटा भाई (Vibhishan Kaun Tha) विभीषण श्रीराम की शरण में आया। उसने श्रीराम को बताया कि वे विष्णु भक्त हैं तथा उनके द्वारा माता सीता को लौटाए जाने की बात का सुनकर रावण ने उन्हें नगरी से निष्कासित कर दिया हैं। इसलिये वे श्रीराम की शरण में आए हैं।
श्रीराम ने शत्रु के भाई होते हुए भी अपनी शरण में आये प्राणी की रक्षा (Ram Aur Vibhishan Ki Mitrata) करना अपना धर्म समझा। साथ ही हनुमान ने भी उन्हें बता दिया था कि जब वे माता सीता का पता लगाने लंका गए थे तब उन्हें वहां यही एक सज्जन पुरुष मिले थे। इससे श्रीराम ने यह संदेश दिया कि आपकी शरण में यदि शत्रु भी आए तो उसकी सहायता करनी चाहिए।
हालाँकि रावण एक पापी था जो माता सीता का हरण करके ले गया था लेकिन फिर भी श्रीराम युद्ध शुरू होने से पूर्व रावण को एक शांति संदेश भेजना चाहते थे। उनका मत था कि यदि दो व्यक्तियों की निजी शत्रुता को आपस में सुलझाया जा सके तो युद्ध में असंख्य प्राणियों के संहार को रोका जा सकता हैं।
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इसके लिए श्रीराम ने बालि के पुत्र व सुग्रीव के भतीजे अंगद को शांतिदूत (Angad Ravan Samvad) बनाकर रावण की सभा में भेजा लेकिन रावण ने अपने अहंकार में श्रीराम का शांति संदेश ठुकरा दिया।
इसके बाद श्रीराम व रावण की सेना के बीच भीषण युद्ध (Ram Ravan Antim Yudh) शुरू हो गया। इस युद्ध में रावण के सभी भाई-बंधु, मित्र, योद्धा मारे गए व अंत में रावण की भी मृत्यु (Ravan Ki Mrityu) हो गयी। साथ ही श्रीराम की सेना पर भी कई बार विपत्ति आयी। युद्ध के मुख्य प्रसंगों में:
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जब रावण का वध हो गया तो मंदोदरी सहित उसकी सभी पत्नियाँ वहां आकर विलाप करने लगी। रावण के अहंकार स्वरुप उसके कुल में सभी का वध हो चुका था तब केवल रावण के नाना माल्यवान बचे थे। इसके अलावा केवल विभीषण थे जो श्रीराम के पक्ष में थे।
रावण वध के पश्चात लंका के राजपरिवार से एकमात्र जीवित पुरुष माल्यवान जी आए व श्रीराम के चरणों में लंका के राजा का मुकुट रखकर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। तब श्रीराम में सभी लंकावासियों के सामने घोषणा की कि उनका लक्ष्य कदापि लंका पर आधिपत्य जमाना या उसे अयोध्या के अधीन करना नही था। उनका लक्ष्य केवल पापी रावण का अंत करना व अपनी पत्नी सीता को सम्मानसहित वापस पाना था। यह कहकर उन्होंने विभीषण को लंका का अगला राजा (What Happened To Vibhishana After Ramayana) घोषित कर दिया तथा लंका पुनः लंकावासियों को ही लौटा दी।
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विभीषण को लंका का राजा घोषित करने के पश्चात उन्होंने माता सीता को मुक्त करने का आदेश दिया। इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण को अग्नि का प्रबंध करने को कहा ताकि सीता अग्नि परीक्षा देकर वापस आ सके। यह सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो गए तो श्रीराम ने उन्हें बताया कि जिस सीता को रावण उठाकर लेकर गया था वह असली सीता नही बल्कि उनकी परछाई मात्र (Truth Behind Agni Pariksha Of Sita In Hindi) थी।
असली सीता को उन्होंने हरण से पहले ही अग्नि देव को सौंप दिया था क्योंकि रावण इतना भी शक्तिशाली नही था कि माता लक्ष्मी के स्वरुप माँ सीता का हरण कर सके। इसके बाद अग्नि का प्रबंध किया गाया व उसमे से भगवान श्रीराम को अपनी पत्नी सीता पुनः प्राप्त हुई।
इसके बाद श्रीराम पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आए। उस दिन कार्तिक मास की अमावस्या थी जो कि वर्ष की सबसे काली रात होती हैं लेकिन अयोध्यावासियों ने अपने राजा श्रीराम के वापस आने की खुशी में पूरी नगरी को दीयों से रोशन कर दिया था। दूर से ही देखने पर अयोध्या जगमगा रही थी। असंख्य दीपो के बीच श्रीराम का अयोध्या में आगमन हुआ। आज इस दिन को हम सभी दीपावली त्यौहार (Deepawali In Hindi) के नाम से मनाते हैं।
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इसके बाद विधिवत रूप से श्रीराम का राज्याभिषेक (Shri Ram Ka Rajyabhishek) हुआ। राजा बनते ही श्रीराम ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए कार्य करना शुरू कर दिया। उनके राज्य में किसी को भी श्रीराम से मिलने का अधिकार था तथा सभी अपने राजा का आदर करते थे।
कुछ समय बाद विधि ने ऐसी चाल चली कि श्रीराम व माता सीता का वियोग हो गया। अपने गुप्तचरों के माध्यम से श्रीराम को सूचना मिली (Shri Ram Ke Gun) जिसने उनके मन में संशय उत्पन्न किया। सच्चाई का पता लगाने वे स्वयं वेश बदलकर प्रजा के बीच गए व उनके मन की बात पता लगायी। उन्हें ज्ञात हुआ कि अधिकांश प्रजा माता सीता के चरित्र पर संदेह कर रही हैं क्योंकि वे रावण के महल में लगभग एक वर्ष तक रही थी। अयोध्या की प्रजा श्रीराम के द्वारा माता सीता का त्याग चाहती थी।
यह सुनकर श्रीराम का मन व्यथित हो उठा तथा उन्होंने अपनी पत्नी सीता से विचार-विमर्श किया। अंत में यह निर्णय लिया गया कि श्रीराम माता सीता का त्याग कर देंगे व माता सीता वन (Sita Mata Ka Banwas) में जाकर निवास करेंगी।
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इससे श्रीराम ने राजधर्म की शिक्षा (Rajdharm Story In Hindi) दी। राजधर्म अर्थात एक राजा का धर्म। जब कोई व्यक्ति राजा बनता हैं तो उसके लिए अपने परिवार, निजी रिश्तों से बढ़कर उनकी प्रजा का निर्णय होता हैं। प्रजा में भी जो अधिकांश प्रजा का निर्णय हैं वह राजा को मानना ही होता हैं फिर चाहे निजी तौर पर राजा उस निर्णय से असहमत ही क्यों ना हो।
राजा प्रजा के समक्ष केवल एक अच्छा उदाहरण (Shri Ram Ka Swabhav) प्रस्तुत कर सकता हैं लेकिन प्रजा के मत के विरुद्ध नही जा सकता अन्यथा यह राजधर्म के विरुद्ध होता। इसलिये श्रीराम ने माता सीता का त्याग कर दिया व माता सीता वन में चली गयी।
साथ ही श्रीराम ने प्रजा के समक्ष एक आदर्श (Shri Ram Ke Aadarsh In Hindi) उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए कभी किसी दूसरी स्त्री से विवाह नही किया तथा हमेशा सीता को अपनी पत्नी माना। अयोध्या की प्रजा श्रीराम के दूसरे विवाह व अपने भावी सम्राट की प्रतीक्षा में थी (Character Of Ram In Hindi) लेकिन श्रीराम ने ऐसा कुछ नही किया। बल्कि उन्होंने तो माता सीता की भांति राजमहल की सभी राजसी वस्तुओं का त्याग कर दिया था तथा माता सीता की ही भांति भूमि पर सोते थे।
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कई वर्षो के पश्चात श्रीराम ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में राजा के द्वारा एक घोड़ा छोड़ दिया जाता हैं। वह घोड़ा जहाँ-जहाँ भी जाता हैं वहां-वहां उस राज्य की भूमि अयोध्या के शासन के अंतर्गत आ जाएगी ताकि संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सके व युद्ध जैसी स्थिति को टाला जा सके।
वह घोड़ा जहाँ-जहाँ से भी निकला वहां-वहां के राजाओं ने श्रीराम की अधीनता स्वीकार की लेकिन वाल्मीकि आश्रम के पास दो बालको ने उनको युद्ध की चुनौती (Ashwamegh Yagya Luv Kush) दे डाली। उनसे युद्ध करने के लिए श्रीराम ने एक-एक करके अपने सभी भाइयों, सुग्रीव व हनुमान को भेजा लेकिन सभी योद्धाओं को उन बालको ने परास्त कर दिया।
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अंत में श्रीराम स्वयं गए तो महर्षि वाल्मीकि जी ने आकर युद्ध (Luv Kush Ram Ka Yudh) रुकवाया व दोनों बालको को अपने राजा से क्षमा मांगने को कहा। इसके बाद श्रीराम वह घोड़ा लेकर पुनः अयोध्या आ गए।
इसके कुछ दिनों के पश्चात अयोध्या में दो बालको की चर्चा शुरू हो गयी जो अयोध्या की गलियों में घूम-घूमकर अपने गुरु महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण लोगों को सुनाते थे। यह सुनकर श्रीराम ने उन दोनों बालको को आमंत्रण दिया तथा राम दरबार में रामायण सुनाने को कहा। वे दोनों बालक वही थे जिन्होंने श्रीराम का घोड़ा पकड़ा था।
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अगले दिन दोनों बालको ने अपना नाम लव-कुश बताया व श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की संपूर्ण कथा छंदबद्ध तरीक से (Luv Kush Ram Katha) सुनाकर सभी को सम्मोहित कर लिया। माता सीता के अकेले वन में जाने के बाद की कथा को कोई नही जानता था लेकिन उन बालको ने माता सीता के द्वारा वन में बिताए जा रहे जीवन को अयोध्या के समक्ष रखा व स्वयं को श्रीराम व माता सीता का पुत्र बताया।
यह सुनकर वहां खड़े सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए तथा श्रीराम भी अधीर हो गए लेकिन एक राजा का कर्तव्य निभाते हुए उन्होंने स्वयं माता सीता को राज दरबार में आकर यह बताने को कहा कि यह दोनों उन्ही के पुत्र हैं। अगले दिन माता सीता राज दरबार में आयी तथा द्रवित होकर यह घोषणा की कि यदि ये दोनों श्रीराम व उन्ही के पुत्र हैं तो यह धरती फट जाए व माता सीता उसमे समा जाए।
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इतना सुनते ही धरती फट पड़ी व माता सीता उसमे समा (Sita Mata Dharti Mein Samaye Thi) गयी। श्रीराम यह देखकर माता सीता को पकड़ने दौड़े लेकिन बचा नहीं सके। इससे वे विलाप करने लगे तथा अत्यंत क्रोधित हो गए। तब भगवान ब्रह्मा ने प्रकट होकर उन्हें उनके असली स्वरुप का ज्ञान करवाया तथा बताया कि अब माता सीता से उनकी भेंट वैकुण्ठ धाम में होगी। इसके बाद श्रीराम का मन शांत हुआ व उन्होंने अपने दोनों पुत्रों लव व कुश (Shri Ram Vanshavali) को अपना लिया।
माता सीता के जाने के बाद श्रीराम ने अयोध्या का राजकाज कुछ वर्षों तक और संभाला। इसके बाद उन्होंने अपना साम्राज्य अपने दोनों पुत्रों लव-कुश व भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के पुत्रों में बाँट दिया व स्वयं जल में समाधि ले ली।
समाधि लेने से पहले वे जानते थे कि लक्ष्मण व हनुमान उन्हें ऐसा नही करने देंगे। इसलिये उन्होंने हनुमान को तो पाताल लोक भेज दिया तथा लक्ष्मण का योजना के तहत त्याग (Shri Ram Laxman Ki Mrityu Kaise Hui) कर दिया। अपने त्याग के बाद लक्ष्मण ने सरयू नदी में समाधि ले ली।
उसके बाद श्रीराम ने अपने बाकि दो भाइयों व अयोध्या की प्रजा के कुछ लोगो सहित जल में समाधि ले ली व अपने धाम को पहुँच गए। इस प्रकार श्रीराम अपने अवतार का उद्देश्य पूर्ण कर पुनः अपने धाम वैकुण्ठ पधार गए।
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nice bro you share the knowledge
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
मर्यादा पुयशोत्म भगवान श्रीराम का दुनिया को यही तो सन्देष था कि मनुष्य की आने वाली पीढ़ी भगवान राम के जीवन का अनुसरण करते हुए अपना जीवन साथ्ज्र्क करे। रामायण के सभी पात्र मानव को कुछ न कुछ सीख देते है। भगवान राम त्रेता युग के साथ आज के युग में पूर्ण रूपेण सारथक है क्योंकि भारत देश भगवान श्रीराम के आदर्शों पर चलने वाला देष है जहाॅ के कण-कण में प्रभु श्रीराम बसते है जय श्रीराम ।
BHAGWAN SRI RAM CHANDER JI KE AGE KITNEE THEE JI,
JAI SRI RAM RAM JI
एक हजार वर्ष से ऊपर